Wednesday, June 6, 2018

3 कांड -सफ़र

शहीद (उपन्यास) -बलराज सिंह सिद्धू (अनुवाद -सुभाष नीरव)


धनीराम को 14वां साल लग गया था। उसके लिए अब तक जीवन नाली में बहते पानी की तरह बहुत सीधा-साधा, बिना किसी हलचल के चलता रहा था। साधारण व्यक्तियों के लिए तो यह वर्ष बचपन के अंतर्गत ही गिना जाता है। मगर धनीराम अपनी उम्र से कहीं बड़ा हो चुका था। उसकी योग्यता को देखते हुए उसे कोई बालक नहीं समझ सकता था और न ही वह अपनी रूप-रंग से नाबालिग लगता था। उसकी कदकाठी और डीलडौल देखकर देखने वाले को उसके सोलह-सत्रह साल का नौजवान होने का भ्रम होता था।

नित्य की भाँति धनीराम साइकिल पर सवार होकर अपने गाँव से लुधियाने को जा रहा था। उसके चेनकवर रहित, बिना मडगार्ड वाले पुराने साइकिल की चैन वाद्ययंत्र की तरह संगीत पैदा करती थी और वह उसके साथ सुर मिलाकर गाता हुआ पैडल मारे जा रहा था। साइकिल के टायरों की गति में न ही तेजी थी और न ही धीमापन। एक मद्धम सी रफ्तार के साथ टायर सड़क पर लकीर खींचते आगे बढ़े जा रहे थे।

“रांझा कहता सहतिये, माड़ा ना कह ना योगी नूं। सच्चियां दस दिनां मैं, सुण लै कन्न ला के।“ धनीराम के मुँह से निकलते ‘हीर’ के बोल फिजा को महका रहे थे। जब वह गाता था तो अपनी गायकी मंे इतना मग्न हो जाता था कि उसको अपने आसपास की भी ख़बर न रहती थी। गुम हो जाया करता था वह अपने गीतों में। उसका यूँ खोे जाना स्वाभाविक था, लेकिन उसको सुनने वाले भी अक्सर कायनात को भूल जाया करते थे।

जैसे ही धनीराम पक्की सड़क वाली बड़ी-सी कोठी के पास से गुज़रने लगा तो एक कागज की गेंद आकर उसके सिर पर बजी। कागज होने के कारण बेशक चोट तो नहीं लगी थी उसको, पर ध्यान अवश्य टूट गया था। उसके हाथ एकदम ब्रेकों पर चले गए थे और गीत के बोल भी वहीं थम गए थे। उसने उस दिशा की ओर देखा जिधर से गेंद आयी थी।

कोठी की बाल्कॉनी में एक खूबसूरत युवती खड़ी मुस्करा रही थी। उस नवयौवना की आँखों में हसरत थी। एक शरारत थी। एक मासूमियत थी और सबसे बड़ी बात एक मुहब्बत थी। प्रेम निमंत्रण दे रही वे नज़रें, वह दृष्टि धनीराम ने जीवन में पहली बार देखी थी।

लड़की ने कागज उठाने का इशारा किया था तो धनी राम काँप गया था। उसका सारा शरीर लरज गया था। जैसे कोई बिजली की लहर उसके पैरों से होकर सिर को चढ़ गई हो। एक आनंदमयी अनुभव था यह, जो अक्सर चढ़ती जवानी में किसी को हुआ करता है। फिर कोई खौफ उसके सिर पर नाचा था। किसी अज्ञात भय का फनियर साँप उसके जे़हन में फुंकारे मारने लग पड़ा था।

कागज उठाने की बजाय धनी राम ने साइकिल को आगे बढ़ाया और तेज़-तेज़ पैडल मारता हुआ वहाँ से अपनी मंज़िल की ओर यूँ बढ़ने लगा था मानो वह कोई चोरी करके भाग रहा हो। पता नहीं वह क्यों डर गया था? बात यह नहीं थी कि धनी राम को मुहब्बत का इल्म नहीं था। यूँ वह इस जज़्बे से पूरी तरफ वाकिफ़ भी नहीं था। यह अलग बात थी कि धनी राम ने इश्क का अनुभव नहीं लिया था या इस प्रेम के फल को चखकर नहीं देखा था। परंतु उसने आस-पड़ोस और गाँव में बहुत इश्क-पेचे पड़ते देखे थे। या यूँ कह लो कि वह बारात नहीं चढ़ा था, पर चढ़ती हुई बारातें उसने खूब देखी थीं।

उम्र बेशक धनी राम की अभी छोटी थी, पर प्रेम भावनाएँ उसके अंदर कब से टिमटिमाने लग पड़ी थीं। जैसे जैसे वह आगे बढ़ता जाता, उसका साइकिल और तेज़ होता जाता था। लुधियाना पहुँचने तक वह पसीने से तर-ब-तर हो चुका था। सारे रास्ते उसके अंदर अनेक प्रकार के ख्याल आते रहे थे। फिर वह अपने काम में लगकर सब कुछ भूल गया था। हौज़री की फैक्टरी का वातावरण और मशीनों के शोर या कह लो कि काम के ज़ोर ने उसको सोचने योग्य छोड़ा ही नहीं था।

“हाले रोक न भाबी मेरिये, मैं सहिबा लिऊणी विआह। मैंनूं सदिया साहिबा हूर ने, मिलणा बीबो दे घर जा।“ अगले दिन जब धनी राम फिर उसी राह पर से गुज़रता हुआ अपनी मस्ती में ‘मिर्जा’ गाता साइकिल चला रहा था तो उसके साइकिल की चेन उतर गई थी। यह चेन उतरने वाला स्थान वही था जहाँ उसे कागज की गेंद आकर बजी थी।

साइकिल को स्टैंड पर खड़ा करके धनी राम चेन को चढ़ाने लगा था। चेन ज्यादा ढीली हो जाने के कारण चढ़ नहीं रही थी। वह चेन चढ़ाकर पैडल को घुमाता तो चेन फिर उतर जाती थी।

अभी वह चेन के साथ जूझ ही रहा था कि वही बाल्कॉनी वाली लड़की उसके सामने आकर खड़ी हो गई थी। उसके हाथ में एक कागज का टुकड़ा था। धनी राम ने उसकी ओर देखा तो उसने कागज उसकी ओर बढ़ाते हुए मिसरी जैसी मीठी आवाज़ में कहा था, “मुझे तू बहुत सुंदर लगता है और गाता तू उससे भी सुंदर है।“

यह सुनते ही घबराकर बिना चेन चढ़ाये धनी राम वहाँ से यूँ भागा जैसे लड़की ने धमकाया हो। वह साइकिल खींचता हुआ दूर तक दौड़ता रहा था और उसने एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा था।

धनी राम के लिए यह बिल्कुल नया अनुभव था। वह हक्का-बक्का और बेहद ख़ौफजदा हो गया था। फैक्टरी आकर भी उसके हाथ-पैर ने काँपना बंद नहीं किया था। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या हो गया था। उसका चिŸा डांवाडोल रहा था और वह भौंचक्क-सा अजीब-सी अवस्था में पहुँच गया था। सारा दिन उसने गुम-सा रहकर व्यतीत किया था।

अगले दिन धनी राम का दिमाग तो उसको रास्ता बदलकर जाने के लिए कह रहा था। लेकिन उसका दिल उसको फिर उसी रास्ते पर ले चला था। उस लड़की द्वारा यह कहना “तू मुझे सुंदर लगता है“ की अपेक्षा धनी राम को सुरूर लड़की की इस बात पर हो रहा था, “तू गाता उससे भी सुंदर है“। लड़की द्वारा की गई उसकी गायकी की प्रशंसा उसके अंदर नशे का संचार कर रही थी। यही कारण था कि उस दिन धनी राम के साइकिल की रफ्तार कुछ धीमी हो गई थी। वह उसी वाक्य को याद करके आनंदित हो रहा था। स्वाद ले रहा था वह उस प्रशंसामयी फिकरे का। लेकिन पहले वाक्य के साथ मन के अंदर उपजा भय भी उसके जे़हन में कायम था।

कोठी के करीब जाकर लड़की का चेहरा धनी राम को याद आ गया और वह सिर से पैरों तक झकझोरा गया था। उसने पैडल मारने की रफ्तार तेज़ कर ली थी। उसने कोई गीत भी नहीं गाया था। दिमाग में चलती कशमकश ने धनी राम को साँस भी नहीं लेने दिया था। गाना तो दूर की बात थी। वह कोठी के करीब से साइकिल भगाकर गुज़र जाना चाहता था। तेज़ तेज़ साइकिल चलाता हुआ वह तिरछी-सी आँख से कोठी की तरफ भी देख रहा था।

जब धनी राम कोठी के बराबर से गुज़रने लगा तो धनी को वह लड़की बाल्कॉनी में नज़र नहीं आयी थी। यह देखकर उसको सुकून-सा हो गया था और उसने अपने साइकिल की रफ्तार कम कर दी थी। कुछ गज़ दूर जाने के बाद धनी राम पुरसुकून की अवस्था में चला गया था। आगे जाकर संकरा मोड़ मुड़कर उसने बड़ी सड़क पर चढ़ना था। मोड़ के पास जाकर जैसे ही धनी राम ने साइकिल की घंटी बजायी तो उसको एकदम झटका लगा था।

वही बाल्कॉनी वाली लड़की सामने रास्ते के बीचोबीच खड़ी थी मानो उसके आने का इंतज़ार कर रही थी। लड़की ने आगे बढ़कर धनी राम के साइकिल के हैंडिल को पकड़ उसका रास्ता रोक लिया था।

धनी राम का साइकिल बिना ब्रेक लगाये ही रुक गया था और उसने पैर नीचे ज़मीन पर टिका लिये थे। लड़की ने प्रेम पत्र धनी राम की ओर बढ़ाया। धनी राम को पसीना आने लगा था।

धनी राम के हाथ उस कागज को पकड़ने के लिए आगे न बढ़ते देख उस लड़की ने धमकी दी थी, “पकड़ ले। नहीं तो शोर मचा दूँगी कि मुझे छेड़ता है।“

धनी राम ने इधर-उधर देखा था। चारों तरफ कोई नहीं था। उसने पीछा छुड़ाने के लिए एक झटके से रुक्का पकड़ लिया था, “अब तो जा लेने दे? नहीं तो मैं मर जाऊँगा।“

“यही तो मैं चाहती हूँ... तू भी मरे। मैं तो कब की तेरे पर मरी पड़ी हूँ।“ कहकर मंद मंद मुस्कराते हुए उस लड़की ने रास्ता छोड़ दिया था।

धनी राम ने ख़त सहित साइकिल को दौड़ा लिया था। डर से टांगें काँपती होने के बावजूद उसका साइकिल फुर्तीली घोड़ी की तरह भागा जा रहा था।

फैक्टरी पहुँचने से पहले एक एकांत जगह पर रुककर धनी राम ने उस प्रेम पत्र को पढ़ा था। पत्र में लड़की द्वारा उसके प्रति अपनी प्रेम भावनाएँ प्रकट करने के अलावा उसके और उसकी गायकी के लिए खूब तारीफ़ लिखी थी।

पत्र का हर वाक्य एक गोली की तरह धनी राम के दिमाग में घुस गया था। विशेषकर वह पंक्ति जिसमें लड़की ने लिखा था, “मैं तुम्हें लाउड स्पीकरों में गाता सुनना चाहती हूँ।“

पत्र पढ़ते ही धनी राम को सुरूर आ गया था। फैक्टरी जाकर भी उसका धरती पर पैर नहीं लगता था। वह खुशी में मतवाला हुआ पड़ा था। जीवन में धनी राम का यह पहला प्रेम अनुभव था। इसलिए उसको पता ही नहीं था कि इससे आगे क्या करना था। आगे कुछ करने के बारे में धनी राम सोच भी नहीं रहा था। उसको तो एक अजीब-सा खुमार चढ़े जाता था। वह लड़की ‘कुŸो वाले तवों’ पर उसकी फोटो देखना चाहती थी और उसकी आवाज़ लाउड स्पीकरों में बजती सुनना चाहती थी। धनी राम को लगता था, जैसे यह सब जल्द ही सच होने वाला था।

पूरा दिन धनी राम हवा में उड़ता रहा था। दिन में उसने कई बार जेब में से निकालकर उस प्रेम पत्र को पढ़ा था। उसको उस पत्र का एक एक शब्द याद हो गया था। ज़िन्दगी में कोई पहला इन्सान मिला था जो उसको गाने के लिए उत्साहित ही नहीं कर रहा था, बल्कि हल्ला-शेरी भी दे रहा था।

धनी राम बेशक उस लड़की का नाम नहीं जानता था और न ही उस लड़की ने पत्र में अपना नाम लिखा था, मगर फिर भी धनी राम ने उसका नाम ‘बिल्लो’ रख लिया था। धनी राम को बिल्लो के साथ मुहब्बत हो गई थी। एक पल के लिए तो धनी राम ने बिल्लो के साथ विवाह करवाने का विचार भी मन में बना लिया था। उसका दिल बिल्लो के साथ घर बसा कर उज्जवल भविष्य के सपने बुनने लग पड़ा था।

दोपहर को लंच के समय धनी राम हमेशा फैक्टरी के बाहर खड़ी चाय की रेहड़ी वाले के पास जाकर रोटी खाया करता था। रेहड़ी के मालिक बूंदी को वह चाचा कहकर बुलाता था और उसको उसके मनपसंद का कोई गीत भी सुना देता था। बूंदी, धनी राम को चाय का कप मुफ्त में देता था।

उस दिन रोटी खाने जब वह गया तो जाते ही उसने बूंदी से पूछ लिया था, “चाचा, अगर मेरे इस साइकिल के कैरिअर पर बड़ी कोठी वालों की लड़की बैठी हो तो कैसी लगेगी?“

“क्या बात है, आज चाय की जगह पैग लगा लिया?“ बूंदी ने बिना धनी राम की ओर ध्यान दिए उŸार दिया था।

“नहीं, क्यों?“

बूंदी खूब अनुभवी व्यक्ति था। वह झट समझ गया कि धनी राम कहाँ से बोल रहा था। उसने अपना काम बीच में ही छोड़कर धनी राम को बेंच पर बिठाया और समझाने लगा था, “देख, हम जैसे गरीबों को बख़्तावरों की लड़कियों के ऐसे सपने नहीं देखने चाहिएँ। बहुत तंग किया करते हैं। तेरे इस मरियल से साइकिल और उस आलीशान कोठी के बीच बहुत दूरी है।“

“ले, मैं तो रोज कोठी के सामने से गुज़रता हूँ।“ धनी राम के अंदर से बचपना बोल रहा था।

“नहीं, मेरा मतलब है, तेरी इतनी हैसियत नहीं कि तू कोठी वाली को बिठा सके। कोठी वाली को बिठाने के लिए तुझे कार चाहिए और कार लेने के तू काबिल नहीं।“

बूंदी की बात सुनकर धनी राम निराश-सा हो गया था। अनेक सपने और हसरतें उसके अंदर ही शीशे की तरह टूटकर किरच-किरच हो गई थीं। उसका रोना निकल गया था।

बूंदी ने उसको गले लगाकर हौसला दिया था। कुछ पल रूआंसा रहने के बाद धनी राम ने आँसू पोंछे और बूंदी की आँखों में आँखें डालकर कहा था, “चाचा, तू देखना, मैं अपने में कितनी हैसियत पैदा करता हूँ। ये कोठी वाले सोचा करेंगे कि उनकी मेरे साथ बैठने की हैसियत है या नहीं। मैं इस साइकिल से कार तो क्या, जहाजों तक का सफ़र करूँगा। मैं बख़्तावर बनूँगा।“ इतना कहकर धनी राम ने फैक्टरी लौट जाने की बजाय अपना साइकिल उठाया था और गाँव में उसी ‘नीम वाली मोटर’ पर आकर गाने का रियाज़ करने लग पड़ा था।

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