अमर सिंह चमकीले और सुरिंदर सोनिया के आठ के आठ गीत मार्किट में धूम मचा रहे थे। कार्यक्रमों की तो जैसे बाढ़ आ गई थी। एक दिन में दो दो कार्यक्रम भी बुक हो जाते थे।
इस समय तक चमकीला को सोनिया अपने सहायक कलाकार के तौर पर ले जाया करती थी। कार्यक्रम सुरिंदर सोनिया का पति कश्मीरी लाल बुक किया करता था। चमकीला को प्रति कार्यक्रम डेढ़ सौ रुपया दिया जाता था।
चमकीला ने केसर टिक्की के साथ परामर्श किया, “गीत मैं लिखता हूँ और तैयारी करवाने से लेकर कार्यक्रम तक सब मेरी मेहनत होती है। पैसा तो सोनिया और उसका पति बनाये जा रहे हैं। अब मेरे पैसे बढ़ने चाहिएँ।“
टिक्की ने भी चमकीले को चढ़ा दिया था, “हाँ, तू आज के बाद से मेहताना दुगना लिया कर।“
कश्मीरी लाल ने जयपुर-जोधपुर की ओर बाबा विश्वकर्मा का कोई कार्यक्रम बुक कर लिया था। कार्यक्रम दीवाली से दूसरे दिन का था। लेकिन बहुत दूर होने के कारण कार्यक्रम के लिए निकलना दीवाली के दिन ही था। कश्मीरी लाल ने चमकीले और टिक्की को प्रोग्राम के बारे में बताने के लिए अपने दफ्तर में बुलाया।
कश्मीरी लाल ने कार्यक्रम के बारे में सारा ब्यौरा बताकर चमकीले को तैयार होकर चलने के लिए कहा तो चमकीला मुकर गया, “मैं तो नहीं जाऊँगा। तुम जिसे चाहे ले जाओ।“
“क्यों? जाएगा क्यों नहीं?“ कश्मीरी लाल को झटका लगा था।
चमकीला ने टिक्की की ओर इशारा कर दिया, “इससे पूछ लो।“
कश्मीरी लाल टिक्की की ओर मुखातिब हुआ, “हाँ भई, क्यों नहीं जाना?“
“चमकीला कहता है, अब से यह कार्यक्रम का तीन सौ रुपया लिया करेगा।“
टिक्की ने रहस्य खोला तो कश्मीरी लाल भड़क उठा, “बड़ा आया तीन सौ का! तुम्हारे बाप का राज है? प्रोग्राम खराब करना है, जितना मरज़ी कर लो। प्रोग्राम तो हम करके ही आएँगे।“
कश्मीरी लाल ने कुछ देर दोनों की प्रतिक्रिया देखी और फिर टिक्की से संबोधित हुआ, “टिक्की समझा इसे। इसका दिमाग खराब हो गया है।“
“दिमाग खराब नहीं हुआ जी, अब तो ठीक हुआ है। तीन सौ के हिसाब से दो दिनों के छह सौ बनते हैं। पैसे पकड़ाओ, चला चलता हूँ। नहीं तो अपनी राम राम।“ चमकीला बोले बिना रह नहीं सका।
“तू ले लेना तीन सौ, जो तुम्हें देता है। प्रोग्राम तो हम करके आएँगे। जैसे मरज़ी करके आएँ।“ कश्मीरी लाल गुस्से में झाग फेंक रहा था।
चमकीला और टिक्की, कश्मीरी लाल के दफ्तर में से उठकर बाहर आ गए। कश्मीरी लाल अपने घर गया और उसने सोनिया को सारी बात बताई। सोनिया भी कहने लगी, “अगर चमकीले को तीन सौ देंगे तो हमें क्या बचेगा?“
कश्मीरी लाल, अजायब राय और मनजीत भुल्लर को लेकर राजस्थान चला गया था। तब लोग चमकीले के गीतों से परिचित थे, लेकिन उसे देखा नहीं था। कश्मीरी लाल ने अजायब राय को सोनिया के साथ अमर सिंह चमकीला बनाकर पेश कर दिया। मनजीत भुल्लर को उन्होंने सहायक गायिका बताकर प्रोग्राम करवा लिया। इधर घर में खाली बैठा टिक्की चमकीले से बोला, “अच्छी दीवाली आई है! अपना दीवाला निकाल गई। सोनिया तो प्रोग्राम कर रही है। हम खाली बैठे हैं।“
“खाली नहीं बैठे, अपना काम तो अब ही शुरू होगा।“ चमकीला के अंदर से आत्म-विश्वास बोल रहा था।
“क्या मतलब है तेरा?“
“अब मैं किसी के साथ नहीं जाया करूँगा। बल्कि लोग मेरे साथ जाया करेंगे।“ चमकीले ने मूंछ मरोड़ते हुए कहा।
“क्या योजना है तेरी? मुझे भी खुलकर बता।“
“सबसे पहले तो हमें अपना दफ्तर चाहिए। किसी न किसी तरह हम इसी कश्मीरी लाल वाले दफ्तर पर कब्ज़ा करें। यह बढ़िया ठिकाने पर है।“
“ये कलाकारों के सारे दफ्तर मोगे वाले वैद्य गुरबचन सिंह के हैं। हम मोगा उनके लड़के तरसेम के पास चलते हैं।“
चमकीला और टिक्की ने बस ली और सीधे मोगा जा पहुँचे। वहाँ पहुँचते उन्हें तरसेम का चाचा डाॅक्टर बचिŸार सिंह मिल गया। उसने बता दिया था कि तरसेम ऊपर चैबारे में लेटा है। चमकीला और टिक्की चैबारे पर चढ़ गए और उन्होंने तरसेम को अपने आने का मंतव्य बताया। तरसेम ने दफ्तर देने के लिए हामी भर दी, “कश्मीरी लाल से हमने क्या लेना? दफ्तर अब तुम्हारा। वो किराया ठीक से नहीं देता। उसे तो यूँ भी निकालना ही था।“
“तरसेम भाई, जो तू किराया कहेगा, मैं दे दिया करूँगा।“ चमकीला खुश था।
“ठीक है। जो वो देता है, तुम वही दिए जाओ।“ तरसेम ने बात खत्म की।
उसके बाद तरसेम ने नौकर को कहकर बोतल मंगवा ली। शराब पीते हुए आधी बोतल से ज्यादा अंदर उतर गई थी। चमकीला अच्छा-खासा शराबी हो गया था। बार बार वह तरसेम से कहता रहा, “तरसेम, अगर तू मेरा बड़ा भाई है तो दफ्तर मुझे दे दे।“
तरसेम उसे कहता रहा, “चमकीले, जब तक मैं जिंदा हूँ, दफ्तर तेरा।“
बात आई-गई करके तरसेम दूसरा विषय छेड़ लेता। चमकीले को कुछ देर बाद फिर दफ्तर की याद हो आती। वह फिर कहने लग जाता, “तरसेम, भाई बनकर दफ्तर मुझे दे दे पक्का।“
पाँच-दस बार तो तरसेम टालता रहा था। जब चमकीला नहीं टला तो तरसेम ऊबकर बोला, “कह तो दिया यार, दफ्तर तेरा है। अब मैं दफ्तर तेरे हाथ में पकड़ा दूँ?“
“हाँ, तू हाथ में पकड़ा भाई। मुझे तो दफ्तर के अंदर घुसा कर आ जल्दी।“ कहकर चमकीला बच्चों की भाँति रोने लगा।
चमकीले को बहलाकर तरसेम बोला, “चल हम अभी चलते हैं।“
उसने जीप निकाली और बीच में एक-दो आदमी और बिठाए। चमकीला और टिक्की के साथ सवेरे के तीन चार बजे लुधियाना की ओर चल पड़े। दफ्तर पहुँचकर पहले तो ताला तोड़कर दफ्तर में पड़ा सामान निकालकर चैबारे पर चढ़ाया। फिर बोर्ड उतारकर दुग्गरी वाली नहर में बहाया और फिर टिक्की के किराये वाले कमरे में जाकर सब सो गए। अगले दिन सवेरे उठकर सबने सलाह की कि श्री गुरू ग्रंथ साहिब का प्रकाश करवाया जाए। करीब ही गुरद्वारे में से बीड़ लाकर सात दिनों का सहज पाठ रखवा दिया। आता जाता हर कोई आकर माथा टेकता और कश्मीरी लाल के बोर्ड के बारे में पूछता। तरसेम हरेक को एक ही जवाब देता, “बोर्ड तो भाई कीरतपुर पहुँच गया है।“
चमकीले के पास फर्नीचर लेने के लिए पैसे नहीं थे। उसने तरसेम की मिन्नत की तो उसने सात कुर्सियाँ और एक मेज़ भी लेकर दिया। इस प्रकार चमकीले ने दफ्तर पर कब्ज़ा करके पंजाबी गायकी की जंग का मैदान में अपनी आमद का बिगुल बजा दिया था।
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