सर्दियांे की गुनगुनी-सी धूप वाले दिनों में नवां शहर के पास कार्यक्रम से लौटते हुए रास्ते में अमरजोत बोली, “साग खाये बड़े दिन हो गए। आज साग मंगवा लो। मैं रात को बनाऊँगी।“
“साधुओं को स्वादों से क्या? जो चाहे बना लेना बब्बी, हम तो वाहेगुरू कहकर छक लेंगे।“ कार की पिछली सीट पर बैठे अमर सिंह चमकीले ने जवाब दिया था।
थकी होने के कारण अमरजोत ने सीट की पीठ से सिर टिकाकर आँखें बंद कर ली थीं। चमकीले के दूसरी तरफ बैठा सŸाा ढोलक वाला गाड़ी चला रहे अमरजोत के भाई पप्पू के साथ बातें करने में व्यस्त था।
कार चक्क दाना गाँव के पास से गुज़रने लगी तो मक्खी घड़ेवाले ने एक तरफ खेतों में सरसों का साग देखते हुए कहा था, “उस्ताज जी, वो रहा साग। अगर दिल करता है तो तोड़ लेते हैं।“
अमरजोत ने आगे बढ़कर पप्पू का कंधा पकड़कर कहा, “पप्पू, रोक गाड़ी।“
पप्पू ने ब्रेक पर पैर रखकर कार सड़क किनारे रोक ली थी। चमकीला, अमरजोत और सŸाा बाहर निकलकर साग तोड़ने चल पड़े थे।
सŸाा ने जाते हुए अपनी शंका प्रकट की थी, “चमकीला साहब, किसी से पूछ लेते हैं हम। यूँ ही साग चोरी करने का इल्ज़ाम न लग जाए अपने पर।“
“साग ही है, हम कौन सा किसी के गहने उतार लेंगे। यहाँ कोई दिखता नहीं, पूछें किससे?“ चमकीला और अमरजोत साग तोड़ने लग पड़े।
सŸाा थोड़ी दूरी पर पानी की मोटर पर पानी पीने के इरादे से चला गया था। वहाँ मोटर के दूसरी तरह खड़े स्वराज ट्रैक्टर पर चमकीले के गानों की कैसेट बज रही थी, “जीजा लक्क मिण लै...।“
सŸाा जैसे ही मोटर के पास पहुँचा, मोटर वाले कोठे में खेत का मालिक बाहर निकल आया था, “कौन है भाई?“
“मैं हूँ जी, सतपाल सŸाा।“
“सŸाा हो चाहे अट्ठा, या नहला-दहला। क्या काम है?“
“पानी पीना था।“
“पी ले।“ कहकर उसने साग तोड़ रहे औरत और मर्द को देखकर सŸो से पूछा था, “वो तेरे साथ आए हैं?“
“हाँ जी, हम यहाँ से गुज़र रहे थे। सोचा, थोड़ा-सा साग ही ले चलते हैं, सरदार जी।“
“क्यों? बाप का खेत समझ रखा है? शरम नहीं आती तुम्हें, साग चोरी करते हुए?“ खेत का मालिक सŸो पर गुस्से में उलटा पड़ गया था।
“ओ मालिको, चिड़िया चोंच भर ले गई, नदी ना घटिओ नीर। चार गंदलें तोड़ने से आपको क्या फर्क़ पड़ेगा जी? साग है बाबो, टूमें तो नहीं? और आपको पता है, ये साग तोड़ने वाले कौन हैं?“
“कौन को क्या, धरमिंदर और हेमा मालनी है?“
“नहीं जी, आपने ये ट्रैक्टर पर जिनकी टेप लगा रखी है, यह वही जोड़ी है -चमकीला और अमरजोत।“
“साले, सवेरे सवेरे दारू पिये फिरता है? आ चल, तेरी और तेरे चमकीले की टांगे तोड़ता हूँ।“ सŸो को बांह से पकड़कर खींचता हुआ वह आदमी साग तोड़ रहे चमकीले की ओर चल पड़ा था। उसने पीठ किए खड़े चमकीले और अमरजोत को ललकारा था, “खड़े रहो, मैं तुड़वाता हूँ तुम्हे साग।“
चमकीले ने जब पीठ घुमाई तो उस आदमी का मुँह खुला का खुला रह गया था, “चमकीला साहब, आप यहाँ कैसे?“
“बस भाई जी, प्रोग्राम करके लौट रहे थे यहाँ से। बब्बी बोली, साग खाना है। हमने सोचा, यहाँ से ताज़ा साग ले चलते हैं। आपको एतराज है तो रहने देते हैं।“
“ओ चमकीला साब, ये कौन सी बात कर दी? मेरा नाम प्रदुम्मण सिंह है। मैं तो आपका खासा तगड़ा मुरीद हूँ जी। आप चाहे गुलाब तोड़ लो। यह तो फिर भी साग है। मेरे तो धन्य भाग हैं जो आपके जैसे कलाकार बंदे चलकर मेरे पास आए। आपको देखने के लिए लोग दूर-दूर से जाते हैं।“ खेत मालिक प्रदुम्मण की आँखों में खुशी के आँसू चमकने लगे थे। उसने खुद साथ लगकर साग तुड़वाया और सबको खींचकर मोटर की ओर ले गया था, “आओ, मैं चाय बनाता हूँ, और आपको कुछ दिखाता हूँ।“
चमकीला, अमरजोत और सŸाा जब मोटर वाले कोठे की ओर गए तो प्रदुम्मण ने कोठे की एक दीवार में से सीमेंट निकाली हुई मोरी पर उंगली रखकर दिखाई थी, “ये देखो चमकीला साहब। आपका गीत था न वो... ‘उहने खुरच खुरच के कंध विचों, निक्की जिही करली मोरी वे... उहदे बिड़क पैरां दी आउंदी सी, जिवें चोर कोई करदा चोरी वे। मैं समझिया खबरे मोरी विच, कोई चिड़ी आल्हणा पाउंदी सी... उह तकदा रिहा वे, मैं शिखर दुपहरे नाउंदी सी...’ बाई जी, आपके गीत से सीखकर हमने भी ये मोरी निकाल ली... यहाँ चारा काटने आई औरतें कई बार नहाने लग जाती हैं। बस फिर बाकी आप समझ लो...।“
चमकीला हँस पड़ा था, “उस गीत के अगले अंतरे में तो यह भी कहा था, ‘बड़ा कुŸो दा वढ़िया... टलदा नीं कारा कर जाउगा...।’
प्रदुम्मण उत्साहित होकर बोला था, “हाँ जी, हाँ जी... ‘छड्डदा चमकीला खहिड़ा नीं जिहड़ा मगर डुम्मणा ला बैठी... हो तेल भांबड़ ते पा बैठी...’ चमकीला साहब, मेरी विनती है कि आप दोनों जने मेहरबानी करके वही गीत सुना दो। फिर मैं मीट बनाकर आपको रोटी खिलाकर ही भेजूँगा।“
चमकीला और अमरजोत हौदी पर बैठ गए थे। सŸाा उसके पास ही नीचे ज़मीन पर बैठ गया था।
“चल बब्बी, सुना देते हैं।“ चमकीले ने अमरजोत को इशारा किया तो उसने अपने सिर पर ली हुई चुन्नी संवार कर गीत के बोल शुरू किए थे, “तेरा वड्डा वीर मेरा जेठ छड़ा, मोरी विचों तकदा रिहा खड़ा...।“
अस्थायी खत्म होने पर जैसे ही चमकीले ने अपने अंतरे के बोल उठाये थे, मस्ती मंे आकर प्रदुम्मण नाचने लग पड़ा था। उसको अजीबो गरीब ढंग से भंगड़ा करते देख अमरजोत की हँसी निकल गई थी। जैसे ही, अमरजोत ने हँसी पर नियंत्रण किया तो अपने एक अन्य गीत के बोल गाने शुरू कर दिए थे, ‘नचदा फिरे नचारा वांगू, पाके घघरी मेरी नी...।“ एक के बाद एक चमकीले और अमरजोत ने चार-पाँच दो-गानों के टप्पे सुना दिए थे। प्रदुम्मण पूरा प्रसन्न हो गया था, “चमकीला साहब, मेरे साथ मेरे घर चलो। आपको रोटी खाये बग़ैर नहीं जाने दूँगा।“
“उधर भी तेरी ही रोटी है वीरे! हम प्रोग्राम करके आए हैं, थके हुए है। घर जाकर आराम करना है। कल दिल्ली के पास गुड़गाँव में अखाड़ा लगाना है। सवेरे जल्दी ही निकलना पड़ेगा। हमें अब इजाज़त दो।“
प्रदुम्मण ने चमकीले को बांहों में भर लिया था, “अच्छा भाजी! मैं मजबूर नहीं करता।“
प्रदुम्मण कार में बिठाकर चमकीले को वहाँ से विदा करने के बाद सड़क पर तब तक खड़ा रहा जब तक उनकी सलेटी रंग की अम्बेसडर कार एच.आर.ई.1786 उसकी आँखों से ओझल नहीं हो गई थी।
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