कुलदीप पारस के दफ्तर में पारस, जसवंत संदीला और अमर सिंह चमकीला पत्रकार शमसेर संधू के संग बैठे दारू पी रहे थे। पारस ने बात शुरू की थी, “संधू साहब, आप यमले की तंूबी के बहुत आशिक लगते हो?“
“नहीं, यह बात नहीं है। जो बढ़िया तूंबी बजाता है, मैं उसकी तारीफ़ किए बिना नहीं रह सकता। यमले की तूंबी बड़ी प्यारी तूंबी है। मीठी-मीठी... तूंबी तो मुझे चांदीराम की भी बहुत पसंद है। उसकी तंूबी में नजाकत और नखरा है। उसका एक गीत है, ‘हाड़ वी लंघिया, साउण वी लंघिया। लंघ गइयां बरसातां, वे तू ना आइऊँ’... भई जो तूंबी उसने उसमें बजाई है, वैसी तूंबी पूरे पंजाब में किसी को बजानी नहीं आती।“
शमसेर संधू की इतनी बात सुनकर चमकीले ने एक तरफ पड़ी तूंबी उठा ली थी और सुर में करने लग पड़ा था, “भाई फिर तूने मेरी तंूबी नहीं कभी सुनी।“
“चमकीले, तूंबी तो तेरी नहीं सुनी। पर तेरी तूंबी के बारे में सुना ज़रूर है कि शिंदे की स्टेजों पर तूंबी बजाकर तू धन्य-धन्य करवाता है। शिंदे का हाथ तो तूंबी पर ढीला ही है। सभी जानते हैं।“
शमसेर संधू के बोलते ही चमकीले ने चांदीराम के गीत में बजी तूंबी का वही पीस बजाना शुरू कर दिया था। पूरे कमरे में सन्नाटा छा गया था। यदि कोई आवाज़ गूंज रही थी तो वह चमकीले की तूंबी की टंकार थी। बारी बारी, एक के बाद दूसरी, चमकीले ने तीन चार तरजे़ं बजाकर सुनाई थीं। सभी उसकी तूंबी पर यूँ झूम रहे थे मानो बीन पर मस्तानी हुई नागिन नृत्य कर रही हो। तूंबी बजाना बंद करके चमकीले ने संधू से पूछा था, “क्या ख्याल है, भाई फिर मेरी तंूबी के बारे में?“
कुछ सोचकर संधू बोला था, “चमकीले, तूंबी वाले चटाखे निकालते किसी को आज पहली बार देखा है। तेरी तूंबी जादूमयी है। सिर चढ़कर बोलता है तेरी तूंबी का जादू। अब मुझे कहना पड़ेगा, यमले की तूंबी प्यारी, चांदराम की करारी और चमकीले की सरदारी तूंबी है।“
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