Friday, June 15, 2018
Thursday, June 14, 2018
1 कांड -किलकारियाँ
शहीद (उपन्यास) -बलराज सिंह सिद्धू (अनुवाद -सुभाष नीरव)
पंजाब का एक प्रसिद्ध ज़िला है - लुधियाना। इतिहास के अनुसार इसका पहला नाम ‘मीर होता’ हुआ करता था। लोधी वंश ने दिल्ली से भारत पर 1451-1526 ई. तक राज किया था। लोधियों के एक शासक सिकंदर लोधी (1489-1517 ई.) के एक सिपहसालार निहंद खाँ ने मीर होता (लुधियाना) को विकसित करके इसका नाम लोधीयाना रख दिया था। यानी लोधियों का ठिकाना। आहिस्ता-आहिस्ता लोधीयाना से बिगड़कर लुधियाना बना था। यह शहर पंजाब प्रांत के एक औद्योगिक शहर के तौर पर प्रसिद्ध है। लेकिन उद्योग की अपेक्षा यह पंजाबी कलाकारों की राजधानी और गायकों का गढ़ माना जाता है।
इस गायकों की राजधानी लुधियाना ने कई राजा-रंक फ़नकारों को पनाह दी है। आज मैं आपको उस हरफनमौला कलाकार अमर सिंह चमकीला की कहानी सुनाने जा रहा हूँ, जिसने इस राजधानी में बड़े कम समय में अपनी बादशाहत के झंडे गाड़े। वह पंजाबी गवइयों की दुनिया में बादशाह बाबर की तरह आया और छा गया। हुक्मरान हिमायूँ की तरह बहुत कम समय राजगद्दी पर बैठ सका। लेकिन जितने समय तक उसने पंजाबी गायकी के क्षेत्र में शासन किया, वह आलमगीर औरंगजेब की तरह सामने आए हर गायक को अपनी कला की तेज़ तलवार से झटकाता चला गया। शहँशाह अकबर के राज की तरह आज भी उसकी मिसालें दी जाती हैं। वह महाराजा रणजीत सिंह की तरह खुले दिल वाला दानी पुरुष था।
जब वह अपनी जवानी के शिखर छू रहा था तो अपने साथ एक तूफान लेकर आया...एक आँधी...एक बाढ़...एक जलजला...एक ज्वारभाटा...एक भूचाल...एक प्रलय...एक कयामत...एक चक्रवात। पंजाबी गायकी के उस शहँशाह अमर सिंह चमकीले का जन्म इसी लुधियाना शहर के दायीं ओर नहर के किनारे बसे एक अल्पज्ञात गाँव दुग्गरी में हुआ था। आइये, उसके ज़िन्दगीनामे को प्रारंभ से शुरू करते हैं।
दुग्गरी गाँव में 21 जुलाई 1960, शुक्रवार के दिन एक दलित रविदासिये यानी चमार परिवार के सरदार हरी सिंह संदीले और करतार कौर के घर एक बालक ने जन्म लिया था। आर्थिक तंगियों के कारण काफ़ी समय से हरी सिंह के घर का माहौल नाखुशगवार ही रहता था। हरी सिंह के पहले ही दो बेटियाँ थी - एक स्वर्ण कौर और दूसरी चरन कौर। जब उसकी पत्नी करतार कौर तीसरी बार गर्भवती हुई तो हरी सिंह के मन में यही संशय था कि कहीं फिर कन्या न जन्म ले ले। कन्या जन्मने का उस निर्धन मज़दूर के लिए अर्थ था - और अधिक आर्थिक संकटों के थपेड़ों को झेलना। वह तो पहले ही अपना परिवार बूढ़े बैल की तरह खींच रहा था। लेकिन जब उसके कानों में दाई के मुख से बेटा पैदा होने की ख़बर पड़ी तो उसका चेहरा खुशी में खिल उठा था। उसको लगा था मानो यकायक वह धनवान बन गया हो। खुशी में झूमते हरी सिंह ने उसी पल निश्चय कर लिया था कि वह अपने नवजन्मे पुत्र का नाम धनीराम ही रखेगा। इस नाम के स्वाभाविक ही मौके पर सूझ जाने का एक कारण यह भी था कि जनेपे के कुछ दिन पूर्व उसने किसी ज्योतिषी को अपना हाथ दिखाकर अपना भविष्य पूछा था।
ज्योतिषी ने कुंडली लाकर बताया था, “जजमान, यह तेरी होने वाली औलाद बहुत भाग्य वाली... किस्मत की धनी होगी और पूरी दुनिया में तेरा और तेरे खानदान का नाम रौशन करेगी। इसी के प्रताप से तुम्हारे पास इतना धन होगा कि संभले नहीं संभाला जा सकेगा।"
बस, ‘किस्मत के धनी’ शब्द पर उसी समय हरी सिंह की सुई अटक गई थी। यही कारण था कि उसने बच्चे का नाम धनी राम रख दिया था।
परलोक सिधार चुके दादा किशन सिंह और दादी काको के पोते धनी राम की किलकारियाँ घर की खामोशी को तोड़ती हुई चारदीवारी में गूंजती तो हरी सिंह और उसकी पत्नी करतार कौर को यूँ लगता जैसे संगीत की वर्षा हो रही हो। वे अपने बालक को घरेलू नाम ‘धनिया’ के साथ पुकारते थे।
वक्त कभी मदमस्त हाथी की चाल चलता रहा था और कभी जंगली हिरनी की तरह कुलांचे भरता रहा था। यूँ धनिया भी उम्र की सीढ़ियाँ चढ़ता जवान होने लगा था।
Wednesday, June 6, 2018
2 कांड -पहला कदम
शहीद (उपन्यास) -बलराज सिंह सिद्धू (अनुवाद -सुभाष नीरव)
दुग्गरी, धूरी लुधियाना रेलवे लाइन और गिल्लों वाली नहर के मध्य बसा हुआ गाँव था। कहते हैं कि कभी इस गाँव में केवल दो घर ही थे। एक घरवाले गाँव शरींह से आए थे और दूसरे गिल गाँव से। दो घरों के कारण यह स्थान ‘दो-घरी’ं कहलाता था। आज भी यहाँ मौजूद शरींह(शिरीष का पेड़) और गिल की पत्तियाँ इस बात की गवाही भरती हैं। कालांतर में ‘दो घरीं’ से बिगड़कर ‘दुग्गरी’ बन गया था इसका नाम। फिर धीरे-धीरे फैलता, विकसित होता यह गाँव आज एक तरह से लुधियाना का एक अंग ही बन गया है और कस्बे का रूप धारण कर चुका है।
धनी राम को गाँव के सरकारी गुजरखान प्राइमरी स्कूल में जाते कुछ समय हो गया था। स्कूली रिकार्ड में तो हालांकि उसका नाम अमर सिंह संदीला दर्ज़ था। परंतु सभी उसको उसके घरेलू नाम ‘धनिया’ से पुकारते थे। स्कूल में दाखि़ला दिलाते समय मास्टरों ने उसके पिता से उसका नाम पूछा था तो हरी सिंह ने ‘धनिया’ बताया था। मास्टर महिंदर सिंह के यह कहने पर कि यह कोई नाम नहीं होता तो हरी सिंह ने कहा था, “फिर जो होता है, आप खुद ही लिख लो।“
उस समय कहीं दूर किसी स्पीकर पर ढाडी अमर सिंह सौंकी ‘वारें’ गा रहा था। अध्यापकों ने धनी राम का नाम अमर सिंह ढाडी के नाम से प्रेरित होकर अमर सिंह लिख लिया था। मगर सभी बच्चे ही नही, मास्टर त्रिलोचन सिंह, बिमला मास्टरनी और भोंदू मास्टर भी उसको धनिया कहकर ही बुलाते रहे थे। पढ़ाई की अपेक्षा धनी राम का मन साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियों की तरफ अधिक लगता था। खेलों में भी उसकी कोई विशेष रुचि नहीं थी।
धनी राम जब गाँव के लाउड स्पीकरों में पंजाबी गाने बजते सुनता तो उसके कान उधर ही हो जाते थे। उसके कानों को बजते गीतों के सिवाय और कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। दा-चार बार सुनने के बाद सुना हुआ सारा गीत धनी राम को कंठस्थ हो जाता था और अगली बार जब वही गीत उसके कानों में पड़ता था तो धनी राम खुद सारा गीत गायक के साथ गाने लग जाता था।
पहली या शायद दूसरी कक्षा में था धनी राम उस समय, जब एक दिन स्कूल के एक पंजाबी भाषा के मास्टर त्रिलोचन सिंह ने उसको गाते हुए सुन लिया था। बस, फिर क्या था। उस दिन के बाद मास्टर बाल-सभाओं में उसको गाने के लिए खड़ा करने लगे थे।
इस प्रकार, धनी राम के गायन का आगाज़ हो गया था। स्कूल में गीत गाने पर मिले उत्साह के साथ वह गाँव की गलियों में मस्त होकर गाता घूमता था। स्कूल में भी वह अक्सर तख्ती पर ढोलक जैसी थाप देकर अपने सहपाठी बिल्लू के साथ हरदम गाता रहता था। स्कूल के समारोहों में धनी राम की तरह उससे दो तीन साल बड़ा एक और छात्र जिसका नाम बहादुर था, भी गाया करता था। बहादुर को सभी प्यार से ‘बावा’ कहकर बुलाते थे। यद्यपि बावा धनी राम से दो-तीन वर्ष बड़ा था, पर गाने के शौक के कारण धनी और बावा के बीच दोस्ती हो गई थी। दोनों मिलकर स्कूल से बाहर जहाँ कहीं भी अवसर मिलता, गा लेते थे। खाली समय में दूर खेतों के बीच जाकर रियाज़ करते गाते रहते। गाँव से कुछेक दूरी पर नहर के पास पानी की एक मोटर हुआ करती थी। आम तौर पर धनिया और बहादुर उस मोटर पर लगे नीम के दरख़्त के नीचे जाकर बैठा करते थे। उस जगह को वे ‘नीम वाली मोटर’ कहा करते थे।
उन दिनों में दुग्गरी के ही दो गवैये शेरू और मिहरू काफ़ी प्रसिद्ध थे। वे तूम्बी और अलगोजों के साथ दोनों भाई बहुत बढ़िया गाते थे। इधर-उधर अक्सर उनके अखाड़े लगते रहते थे। ‘नागण दी चूड़ी लियादे वे, मैं रोज़ बालमा कहिंदी’ और ‘दो तारा वजदा वे रांझणा, नूरमहल दी मोरी’ गीत उन दिनों में बहुत प्रसिद्ध हुए थे। एक दिन उनके करीब ही अखाड़ा लगा हुआ था। धनी राम और बावा भी उन्हें सुनने चले गए। वहाँ अच्छी-खासी भीड़ थी। लोग उन्हें इनाम देकर अपनी पसंद के गीत सुन रहे थे। यह देखकर धनी राम ने बावा से कहा था, “ओए बावे, हम भी गायें ? हमें पैसे मिलेंगे।“
यह सुनकर बावा को लालच आ गया था, “हाँ यार, मैं करता हूँ मिहरू चाचा से बात।“
दोनों स्टेज के करीब चले गए और मिहरू को इशारे से अपने पास बुलाकर बावा कहने लगा, “चाचा, हमें एक गीत गा लेने दे।“
“तुम्हें गाना आता है?“
“हाँ।“ धनी राम बोल पड़ा था।
“अच्छा फिर आ जाओ।“
धनी राम स्टेज पर चढ़कर गाने लगा था, “नाथा सांभ मुंदरा, साथों कट्ट नीं फकीरी होणी।“
धनी राम की चुलबुली सी दिलकश मासूम आवाज़ के साथ श्रोता मंत्रमुग्ध हो गए थे। लोगों ने फरमाइश करके उनसे दो-तीन गाने और सुने थे। बावा ने गाने में धनी राम का साथ दिया था। उस दिन उनके आठ रुपये बन गए थे। पैसे लेकर घर की तरफ आते हुए वे दोनों उलटी छलांगे लगा रहे थे। धनी राम खुशी में मस्त हुआ पड़ा था, “ओए बावे, ये तो काम ही बहुत बढ़िया है। हम गाने गाना न शुरू कर दें?“
“गाने तो हम लग ही गए आज से। हम भी अब चाचा मिहरू और शेरू की तरह जहाँ दांव लगेगा, गाने चले जाया करेंगे।“
“हाँ।“ धनी राम ने हाँ में हाँ मिलाई थी।
उस दिन के बाद दोनों में गाने की इच्छा प्रबल हो गई थी। उन्होंने कुछ गीत भी कंठस्थ कर लिए थे। नहर के किनारे खेतों में जाकर वे उन गीतों को ऊँची आवाज़ में गाकर रियाज़ करते रहते थे।
गाँव में नौजवान लड़कों ने ‘नगर सुधार समाज सेवा सभा’ बना रखी थी। इन्होंने ही गाँव की धर्मशाला और रविदास गुरद्वारा बनाया था। इस सभा की ओर से पूरन भगत, माता सरस्वती, गुरू रविदास आदि के जीवन पर आधारित ड्रामे करवाये जाते थे। धनी राम और बावा ड्रामा देखने चले जाते थे।
इसी प्रकार, एक दिन वह ड्रामा देख रहे थे। ड्रामों के बीच में गायक ड्रामे से संबंधित गीत गाया करते थे। उस दिन भगत पूरन का नाटक खेला जा रहा था। बावे ने प्रबंधकों से गाने के लिए पूछ लिया था और प्रबंधकों ने उन्हें बच्चा देखकर खुशी-खुशी मंच पर गाने की अनुमति दे दी थी।
स्टेज पर चढ़ते समय धनी राम की बांह पकड़कर बावा बोला था, “धनिया, गाना शुरू करने से पहले तू कान पर हाथ रखकर ऊँची टेर को ज्यादा देर तक खींचना। इससे इन लोगों को लगेगा कि हम बहुत बड़े गवैये हैं।“
“फिक्र न कर, मैं तो रंग जमा दूँगा।“
स्टेज पर जाकर धनी राम और बावा ने माइक के गिर्द अपनी अपनी पोजीशन ले ली थी। साउंड वाले ने आकर माइक नीचा करके उनके कद के बराबर कर दिया था। धनी ने एक हाथ कान पर रखकर टेर लगानी शुरू की थी, “होअ....हो...अ...।“
जब बावा ने धनी राम की साँस रुकती देखी तो उसने टेर उठा दी। जब बावा का दम फूलने लगा तो धनी राम ने टेर ऊँची कर दी थी। इस पर स्टेज के पास आकर एक आदमी ने उन्हें धमकाया था, “गाना भी गाओगे या हेक ही लगाते जाओगे?“
बावा खीझ गया था, “अब आये हैं तो मामा गा कर ही जाएँगे। चल सुन फिर...।“
धनी राम ने एकदम गाना शुरू कर दिया था, “खट्टी आपणे खसम दी खाणी, यार दा नीं घर पटणा...।“
अभी उसने अस्थायी खत्म की ही थी कि एक व्यक्ति ने आकर उन्हें गाना गाने से रोक दिया था, “ये नहीं काका ! कोई गाना सुनाओ।“
“अच्छा जी।“ कहकर धनी राम ने दूसरा गीत आरंभ कर दिया, “खिच लै बांह फड़ के, बोते ते बैठिया यारा... वे खिच लै बांह फड़ के।“
बावा ने कोरस शुरू कर दिया, “हो खिच लै बांह फड़ के...।“
एक प्रबंधक ने आकर दोनों को कलाई से पकड़कर नीचे खींच लिया, “मैं खींचता हूँ तुम्हें बांह पकड़कर।... बड़े आए गवैये।... ऐसे गाने नहीं यहाँ गाये जाते।“
“फिर कैसे गाने गाएँ?“ धनी राम ने भोलेपन से सवाल किया।
“पूरन भगत के। बैठ कर सुन लो। पता चल जाएगा तुम्हें।“
वे दोनों दर्शकों-श्रोताओं के बीच दरियों पर बैठ गए थे। भगत पूरन को लेकर खेला गया यह संगीतमयी नाटक था। इसमें अनेक छोटे-छोटे गीत थे। धनी ने उनमें से कुछ याद कर लिए थे। धनी की स्मरण-शक्ति और पकड़ शुरू से ही बहुत तेज़ थी।
खाली समय में धनी राम और बावा इन गीतों की रिहर्सल करते रहते।
उससे कुछ दिन बाद गाँव में जमींदारों की बेटी का विवाह था। धनी राम और बावा की जोड़ी वहाँ भी जा पहुँची थी। ‘आनंद-कारज’ के बाद बारात बारात-घर में आराम कर रही थी। बाराती दारू पी रहे थे। उनके पास चार-पाँच बाज़ीगरनियाँ नाच रही थीं। बाराती शराब के नशे में उनके साथ छेड़खानियाँ कर रहे थे और वे उन्हें टपकते हुए गीत सुना रही थीं। मचलकर बाराती बाज़ीगरनियों के ऊपर से नोटों की बारिश कर रहे थे।
यह दृश्य देखकर बावा ने धनी राम को कुहनी मारी थी, “कैसे? लगायें अखाड़ा हम भी?“
“चल।“
वे नाचती हुई बाज़ीगरनियों के पास जाकर पूरन भगत वाला रटा हुआ गाना गाने लग पड़े थे, “पुत्त पूरना वे तू ना मेरे पेटों जाया...।“
उन्हें एक दो बार शराबी बारातियों ने गाने से रोका था। इस पर वे और ज़ोर-ज़ोर से गाने लग पड़े थे। एक शराबी खीझ गया और उसने पैर से उतारकर जूती धनी राम की ओर फेंक मारी, “भागो यहाँ से। हमने नहीं सुनने तुम्हारे गाने... लगते कुछ पूरन भगत के।“
बावा ने वही जूती उठाकर शराबी की ओर दे मारी तो उसकी बोतल जूती लगने से उलट गई और दारू बाहर बह गई।
“पकड़ो रे।“ एक बाराती उन्हें पकड़ने के लिए उठ खड़ा हुआ था।
धनी राम और बावा दोनों वहाँ से दुम दबाकर भागे थे और पीछे मुड़कर नहीं देखा था। भागते हुए वे उसी नीम वाली मोटर पर आ गए थे जहाँ बैठकर वे अक्सर गीत गाया करते थे। दोनों का दम फूल रहा था और पसीने-पसीने हुए पड़े थे। उन्होंने चहबच्चे पर बैठकर पहले तो दम लिया और फिर जी भरकर पानी पिया था।
पानी पी कर धनी राम ने कपड़े उतारे और हौदी में डुबकी मारी। नाक दबाकर वह काफी देर तक पानी के अंदर ही रहा था। जब पानी में से सिर बाहर निकालकर खड़ा हुआ था तो यह एक दूसरा ही धनी था। उसके चेहरे पर एक आनेखी ही चमक और आभा ठाठें मार रही थी। उसकी आँखों में अंगारे दहक रहे थे। उसके चेहरे पर एक आत्म विश्वास झलक रहा था। उसका बदला हुआ रूप देखकर बावा बोला था, “अरे यार, तू तो नहा कर बड़ा निखर गया है।“
पानी से बाहर निकलकर धरती पर पहला पैर रखते हुए धनी राम ने दमदार और दृढ़ निश्चय वाली आवाज़ में कहा था, “बावा, आज से मैं अपने गाने वाले गीत खुद ही लिखा करूँगा।“
बावा ने देखा, यह वो धनी राम नहीं था जो पानी में घुसा था। यह कोई दूसरा ही धनी था। धनी गीतकार और धनी गायक जिसने दुनिया से अपनी कला का लोहा मनवाने का दिल में दृढ़ निश्चय कर लिया था।
3 कांड -सफ़र
शहीद (उपन्यास) -बलराज सिंह सिद्धू (अनुवाद -सुभाष नीरव)
धनीराम को 14वां साल लग गया था। उसके लिए अब तक जीवन नाली में बहते पानी की तरह बहुत सीधा-साधा, बिना किसी हलचल के चलता रहा था। साधारण व्यक्तियों के लिए तो यह वर्ष बचपन के अंतर्गत ही गिना जाता है। मगर धनीराम अपनी उम्र से कहीं बड़ा हो चुका था। उसकी योग्यता को देखते हुए उसे कोई बालक नहीं समझ सकता था और न ही वह अपनी रूप-रंग से नाबालिग लगता था। उसकी कदकाठी और डीलडौल देखकर देखने वाले को उसके सोलह-सत्रह साल का नौजवान होने का भ्रम होता था।
नित्य की भाँति धनीराम साइकिल पर सवार होकर अपने गाँव से लुधियाने को जा रहा था। उसके चेनकवर रहित, बिना मडगार्ड वाले पुराने साइकिल की चैन वाद्ययंत्र की तरह संगीत पैदा करती थी और वह उसके साथ सुर मिलाकर गाता हुआ पैडल मारे जा रहा था। साइकिल के टायरों की गति में न ही तेजी थी और न ही धीमापन। एक मद्धम सी रफ्तार के साथ टायर सड़क पर लकीर खींचते आगे बढ़े जा रहे थे।
“रांझा कहता सहतिये, माड़ा ना कह ना योगी नूं। सच्चियां दस दिनां मैं, सुण लै कन्न ला के।“ धनीराम के मुँह से निकलते ‘हीर’ के बोल फिजा को महका रहे थे। जब वह गाता था तो अपनी गायकी मंे इतना मग्न हो जाता था कि उसको अपने आसपास की भी ख़बर न रहती थी। गुम हो जाया करता था वह अपने गीतों में। उसका यूँ खोे जाना स्वाभाविक था, लेकिन उसको सुनने वाले भी अक्सर कायनात को भूल जाया करते थे।
जैसे ही धनीराम पक्की सड़क वाली बड़ी-सी कोठी के पास से गुज़रने लगा तो एक कागज की गेंद आकर उसके सिर पर बजी। कागज होने के कारण बेशक चोट तो नहीं लगी थी उसको, पर ध्यान अवश्य टूट गया था। उसके हाथ एकदम ब्रेकों पर चले गए थे और गीत के बोल भी वहीं थम गए थे। उसने उस दिशा की ओर देखा जिधर से गेंद आयी थी।
कोठी की बाल्कॉनी में एक खूबसूरत युवती खड़ी मुस्करा रही थी। उस नवयौवना की आँखों में हसरत थी। एक शरारत थी। एक मासूमियत थी और सबसे बड़ी बात एक मुहब्बत थी। प्रेम निमंत्रण दे रही वे नज़रें, वह दृष्टि धनीराम ने जीवन में पहली बार देखी थी।
लड़की ने कागज उठाने का इशारा किया था तो धनी राम काँप गया था। उसका सारा शरीर लरज गया था। जैसे कोई बिजली की लहर उसके पैरों से होकर सिर को चढ़ गई हो। एक आनंदमयी अनुभव था यह, जो अक्सर चढ़ती जवानी में किसी को हुआ करता है। फिर कोई खौफ उसके सिर पर नाचा था। किसी अज्ञात भय का फनियर साँप उसके जे़हन में फुंकारे मारने लग पड़ा था।
कागज उठाने की बजाय धनी राम ने साइकिल को आगे बढ़ाया और तेज़-तेज़ पैडल मारता हुआ वहाँ से अपनी मंज़िल की ओर यूँ बढ़ने लगा था मानो वह कोई चोरी करके भाग रहा हो। पता नहीं वह क्यों डर गया था? बात यह नहीं थी कि धनी राम को मुहब्बत का इल्म नहीं था। यूँ वह इस जज़्बे से पूरी तरफ वाकिफ़ भी नहीं था। यह अलग बात थी कि धनी राम ने इश्क का अनुभव नहीं लिया था या इस प्रेम के फल को चखकर नहीं देखा था। परंतु उसने आस-पड़ोस और गाँव में बहुत इश्क-पेचे पड़ते देखे थे। या यूँ कह लो कि वह बारात नहीं चढ़ा था, पर चढ़ती हुई बारातें उसने खूब देखी थीं।
उम्र बेशक धनी राम की अभी छोटी थी, पर प्रेम भावनाएँ उसके अंदर कब से टिमटिमाने लग पड़ी थीं। जैसे जैसे वह आगे बढ़ता जाता, उसका साइकिल और तेज़ होता जाता था। लुधियाना पहुँचने तक वह पसीने से तर-ब-तर हो चुका था। सारे रास्ते उसके अंदर अनेक प्रकार के ख्याल आते रहे थे। फिर वह अपने काम में लगकर सब कुछ भूल गया था। हौज़री की फैक्टरी का वातावरण और मशीनों के शोर या कह लो कि काम के ज़ोर ने उसको सोचने योग्य छोड़ा ही नहीं था।
“हाले रोक न भाबी मेरिये, मैं सहिबा लिऊणी विआह। मैंनूं सदिया साहिबा हूर ने, मिलणा बीबो दे घर जा।“ अगले दिन जब धनी राम फिर उसी राह पर से गुज़रता हुआ अपनी मस्ती में ‘मिर्जा’ गाता साइकिल चला रहा था तो उसके साइकिल की चेन उतर गई थी। यह चेन उतरने वाला स्थान वही था जहाँ उसे कागज की गेंद आकर बजी थी।
साइकिल को स्टैंड पर खड़ा करके धनी राम चेन को चढ़ाने लगा था। चेन ज्यादा ढीली हो जाने के कारण चढ़ नहीं रही थी। वह चेन चढ़ाकर पैडल को घुमाता तो चेन फिर उतर जाती थी।
अभी वह चेन के साथ जूझ ही रहा था कि वही बाल्कॉनी वाली लड़की उसके सामने आकर खड़ी हो गई थी। उसके हाथ में एक कागज का टुकड़ा था। धनी राम ने उसकी ओर देखा तो उसने कागज उसकी ओर बढ़ाते हुए मिसरी जैसी मीठी आवाज़ में कहा था, “मुझे तू बहुत सुंदर लगता है और गाता तू उससे भी सुंदर है।“
यह सुनते ही घबराकर बिना चेन चढ़ाये धनी राम वहाँ से यूँ भागा जैसे लड़की ने धमकाया हो। वह साइकिल खींचता हुआ दूर तक दौड़ता रहा था और उसने एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा था।
धनी राम के लिए यह बिल्कुल नया अनुभव था। वह हक्का-बक्का और बेहद ख़ौफजदा हो गया था। फैक्टरी आकर भी उसके हाथ-पैर ने काँपना बंद नहीं किया था। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या हो गया था। उसका चिŸा डांवाडोल रहा था और वह भौंचक्क-सा अजीब-सी अवस्था में पहुँच गया था। सारा दिन उसने गुम-सा रहकर व्यतीत किया था।
अगले दिन धनी राम का दिमाग तो उसको रास्ता बदलकर जाने के लिए कह रहा था। लेकिन उसका दिल उसको फिर उसी रास्ते पर ले चला था। उस लड़की द्वारा यह कहना “तू मुझे सुंदर लगता है“ की अपेक्षा धनी राम को सुरूर लड़की की इस बात पर हो रहा था, “तू गाता उससे भी सुंदर है“। लड़की द्वारा की गई उसकी गायकी की प्रशंसा उसके अंदर नशे का संचार कर रही थी। यही कारण था कि उस दिन धनी राम के साइकिल की रफ्तार कुछ धीमी हो गई थी। वह उसी वाक्य को याद करके आनंदित हो रहा था। स्वाद ले रहा था वह उस प्रशंसामयी फिकरे का। लेकिन पहले वाक्य के साथ मन के अंदर उपजा भय भी उसके जे़हन में कायम था।
कोठी के करीब जाकर लड़की का चेहरा धनी राम को याद आ गया और वह सिर से पैरों तक झकझोरा गया था। उसने पैडल मारने की रफ्तार तेज़ कर ली थी। उसने कोई गीत भी नहीं गाया था। दिमाग में चलती कशमकश ने धनी राम को साँस भी नहीं लेने दिया था। गाना तो दूर की बात थी। वह कोठी के करीब से साइकिल भगाकर गुज़र जाना चाहता था। तेज़ तेज़ साइकिल चलाता हुआ वह तिरछी-सी आँख से कोठी की तरफ भी देख रहा था।
जब धनी राम कोठी के बराबर से गुज़रने लगा तो धनी को वह लड़की बाल्कॉनी में नज़र नहीं आयी थी। यह देखकर उसको सुकून-सा हो गया था और उसने अपने साइकिल की रफ्तार कम कर दी थी। कुछ गज़ दूर जाने के बाद धनी राम पुरसुकून की अवस्था में चला गया था। आगे जाकर संकरा मोड़ मुड़कर उसने बड़ी सड़क पर चढ़ना था। मोड़ के पास जाकर जैसे ही धनी राम ने साइकिल की घंटी बजायी तो उसको एकदम झटका लगा था।
वही बाल्कॉनी वाली लड़की सामने रास्ते के बीचोबीच खड़ी थी मानो उसके आने का इंतज़ार कर रही थी। लड़की ने आगे बढ़कर धनी राम के साइकिल के हैंडिल को पकड़ उसका रास्ता रोक लिया था।
धनी राम का साइकिल बिना ब्रेक लगाये ही रुक गया था और उसने पैर नीचे ज़मीन पर टिका लिये थे। लड़की ने प्रेम पत्र धनी राम की ओर बढ़ाया। धनी राम को पसीना आने लगा था।
धनी राम के हाथ उस कागज को पकड़ने के लिए आगे न बढ़ते देख उस लड़की ने धमकी दी थी, “पकड़ ले। नहीं तो शोर मचा दूँगी कि मुझे छेड़ता है।“
धनी राम ने इधर-उधर देखा था। चारों तरफ कोई नहीं था। उसने पीछा छुड़ाने के लिए एक झटके से रुक्का पकड़ लिया था, “अब तो जा लेने दे? नहीं तो मैं मर जाऊँगा।“
“यही तो मैं चाहती हूँ... तू भी मरे। मैं तो कब की तेरे पर मरी पड़ी हूँ।“ कहकर मंद मंद मुस्कराते हुए उस लड़की ने रास्ता छोड़ दिया था।
धनी राम ने ख़त सहित साइकिल को दौड़ा लिया था। डर से टांगें काँपती होने के बावजूद उसका साइकिल फुर्तीली घोड़ी की तरह भागा जा रहा था।
फैक्टरी पहुँचने से पहले एक एकांत जगह पर रुककर धनी राम ने उस प्रेम पत्र को पढ़ा था। पत्र में लड़की द्वारा उसके प्रति अपनी प्रेम भावनाएँ प्रकट करने के अलावा उसके और उसकी गायकी के लिए खूब तारीफ़ लिखी थी।
पत्र का हर वाक्य एक गोली की तरह धनी राम के दिमाग में घुस गया था। विशेषकर वह पंक्ति जिसमें लड़की ने लिखा था, “मैं तुम्हें लाउड स्पीकरों में गाता सुनना चाहती हूँ।“
पत्र पढ़ते ही धनी राम को सुरूर आ गया था। फैक्टरी जाकर भी उसका धरती पर पैर नहीं लगता था। वह खुशी में मतवाला हुआ पड़ा था। जीवन में धनी राम का यह पहला प्रेम अनुभव था। इसलिए उसको पता ही नहीं था कि इससे आगे क्या करना था। आगे कुछ करने के बारे में धनी राम सोच भी नहीं रहा था। उसको तो एक अजीब-सा खुमार चढ़े जाता था। वह लड़की ‘कुŸो वाले तवों’ पर उसकी फोटो देखना चाहती थी और उसकी आवाज़ लाउड स्पीकरों में बजती सुनना चाहती थी। धनी राम को लगता था, जैसे यह सब जल्द ही सच होने वाला था।
पूरा दिन धनी राम हवा में उड़ता रहा था। दिन में उसने कई बार जेब में से निकालकर उस प्रेम पत्र को पढ़ा था। उसको उस पत्र का एक एक शब्द याद हो गया था। ज़िन्दगी में कोई पहला इन्सान मिला था जो उसको गाने के लिए उत्साहित ही नहीं कर रहा था, बल्कि हल्ला-शेरी भी दे रहा था।
धनी राम बेशक उस लड़की का नाम नहीं जानता था और न ही उस लड़की ने पत्र में अपना नाम लिखा था, मगर फिर भी धनी राम ने उसका नाम ‘बिल्लो’ रख लिया था। धनी राम को बिल्लो के साथ मुहब्बत हो गई थी। एक पल के लिए तो धनी राम ने बिल्लो के साथ विवाह करवाने का विचार भी मन में बना लिया था। उसका दिल बिल्लो के साथ घर बसा कर उज्जवल भविष्य के सपने बुनने लग पड़ा था।
दोपहर को लंच के समय धनी राम हमेशा फैक्टरी के बाहर खड़ी चाय की रेहड़ी वाले के पास जाकर रोटी खाया करता था। रेहड़ी के मालिक बूंदी को वह चाचा कहकर बुलाता था और उसको उसके मनपसंद का कोई गीत भी सुना देता था। बूंदी, धनी राम को चाय का कप मुफ्त में देता था।
उस दिन रोटी खाने जब वह गया तो जाते ही उसने बूंदी से पूछ लिया था, “चाचा, अगर मेरे इस साइकिल के कैरिअर पर बड़ी कोठी वालों की लड़की बैठी हो तो कैसी लगेगी?“
“क्या बात है, आज चाय की जगह पैग लगा लिया?“ बूंदी ने बिना धनी राम की ओर ध्यान दिए उŸार दिया था।
“नहीं, क्यों?“
बूंदी खूब अनुभवी व्यक्ति था। वह झट समझ गया कि धनी राम कहाँ से बोल रहा था। उसने अपना काम बीच में ही छोड़कर धनी राम को बेंच पर बिठाया और समझाने लगा था, “देख, हम जैसे गरीबों को बख़्तावरों की लड़कियों के ऐसे सपने नहीं देखने चाहिएँ। बहुत तंग किया करते हैं। तेरे इस मरियल से साइकिल और उस आलीशान कोठी के बीच बहुत दूरी है।“
“ले, मैं तो रोज कोठी के सामने से गुज़रता हूँ।“ धनी राम के अंदर से बचपना बोल रहा था।
“नहीं, मेरा मतलब है, तेरी इतनी हैसियत नहीं कि तू कोठी वाली को बिठा सके। कोठी वाली को बिठाने के लिए तुझे कार चाहिए और कार लेने के तू काबिल नहीं।“
बूंदी की बात सुनकर धनी राम निराश-सा हो गया था। अनेक सपने और हसरतें उसके अंदर ही शीशे की तरह टूटकर किरच-किरच हो गई थीं। उसका रोना निकल गया था।
बूंदी ने उसको गले लगाकर हौसला दिया था। कुछ पल रूआंसा रहने के बाद धनी राम ने आँसू पोंछे और बूंदी की आँखों में आँखें डालकर कहा था, “चाचा, तू देखना, मैं अपने में कितनी हैसियत पैदा करता हूँ। ये कोठी वाले सोचा करेंगे कि उनकी मेरे साथ बैठने की हैसियत है या नहीं। मैं इस साइकिल से कार तो क्या, जहाजों तक का सफ़र करूँगा। मैं बख़्तावर बनूँगा।“ इतना कहकर धनी राम ने फैक्टरी लौट जाने की बजाय अपना साइकिल उठाया था और गाँव में उसी ‘नीम वाली मोटर’ पर आकर गाने का रियाज़ करने लग पड़ा था।
4 कांड -तब्दीली
शहीद (उपन्यास) -बलराज सिंह सिद्धू (अनुवाद -सुभाष नीरव)
पाँचवी कक्षा पास करके जब धनी राम छठी कक्षा में आया था तो उसकी माता का स्वर्गवास हो गया था। घर में भैंसें रखी हुई थीं और दूध बेचकर घर का गुज़ारा चलता था। धनी राम की माता ही भैंसों की देखभाल किया करती थीं। उसके देहांत के बाद यह जिम्मेदारी धनी राम के सिर पर आ गई। उसको मज़बूरन पढ़ाई छोड़नी पड़ी। बड़ी बहन स्वर्ण चमिण्डे में ब्याही हुई थी। छोटी बहन चरनो का अभी विवाह होना था। उसको विवाह के बाद घर में रोटी-पानी का काम काफ़ी कठिन हो जाने वाला था। धनी राम की बहनों ने ज़ोर डालकर छोटी उम्र होने के बावजूद धनी राम को विवाह करवाने के लिए राज़ी कर लिया था।
धांदरे वाले गुरदयाल सिंह ने बिचौलिया बनकर पखोवाल के करीब के गाँव नंगल खुर्द वाले तारा सिंह और सुरजीत सिंह की लड़की गुरमेल कौर के साथ चमकीले का रिश्ता पक्का करवा दिया था। धनी राम के परिवार जैसा ही उसके ससुराल का परिवार था। गुरमेल सिंह, बलबीर सिंह, सुखविंदर सिंह तीन साले और गुरचरन कौर, गबर कौर दो सालियाँ। मौके के रिवाज के अनुसार धनी राम ने अपनी होने वाली पत्नी को नहीं देखा था। करीब तीस आदमियों की बारात ट्राली में गई थी। 7 दिसंबर 1975 में पंद्रह वर्षीय धनी राम का एक सादी सी रस्म करके विवाह हो गया था।
धनी राम की पत्नी की उम्र उससे कुछ बड़ी थी और रंग भी रविदासियों की लड़कियों जैसा कुछ घसमैला-सा ही था। धनी का अपना रंग साफ़ था और आँखें भी हल्की भूरी थीं। थोड़ा शौकीन होने के कारण वह पूरा बन ठनकर रहता था। उसकी पत्नी का स्वभाव भी धनी राम के स्वभाव से बिल्कुल उलट था। लेकिन फिर भी उसने अपनी पत्नी को अपनी नापसंदगी प्रकट नहीं होने दी थी। मगर वह विवाह के बाद खुश होने के बजाय मायूस रहने लगा था और एक दिन उसने अपना दुखड़ा अपनी बड़ी बहन के पास जाकर रोया था -
“स्वर्ण, ये तुमने क्या कर दिया? रिश्ता करने के समय कुछ तो देख लेते। कहाँ मैं और कहाँ वो? उम्र भी मुझसे बड़ी है और रंग भी...। हमारा कोई मेल है? विचार तो बिल्कुल ही नहीं मिलते हमारे।“
“जहाँ संजोग होते हैं धनिया, वहीं संबंध बनते हैं।“ धनी राम की बड़ी बहन स्वर्ण ने समझाया था।
“कुछ भी कहो, विवाह तो मैं एक और करवाऊँगा। वह भी अपनी मर्ज़ी का। चाहे मुझे कोई भगाकर क्यों न लानी पड़े। पर मैं अपनी रूह के बराबर वाली से ही विवाह करूँगा।“ गुस्से में बोलकर धनी राम चमिण्डे वाली अपनी बहन के घर से उठकर आ गया था।
उन दिनों बिरादरी में से जसवंत संदीले का विवाह हो गया था। संदीला खुद तो मध्यम से रंग का था, पर उसकी घरवाली काफी सुन्दर थी। संदीला धनी राम को जलाने के लिए धनी के सामने से अपनी पत्नी को लेकर गुज़रता तो धनी राम की छाती पर साँप लोटने लगते। तब धनी राम, बलराज इंडस्ट्रीज वालों के चूड़ियाँ डालने और हाई हैड चलाने का काम करता था। उसका काम पर मन नहीं लगता था। वह दिहाड़ियाँ तोड़ने लग पड़ा था तो मालिकों ने उसे काम पर निकाल दिया। विवश होकर धनी राम को पंचायत मैंबर बूटा सिंह के साथ दिहाड़ियाँ करनी पड़ी थीं। वह कुछ दिन पशुओं को चारा डालता रहा था और मक्की गोड़ता रहा था। फिर उसको लुधियाना में ऐलक्स कंपनी वालों के फ्लैट की नौकरी मिल गई थी। ऐलक्स कंपनी सिलाई, कढ़ाई और बुनती की मशीनों का निर्माण करते थे। धनी राम नौकरी के साथ साथ अपने ड्रामों और गायकी का शौक भी पूरा करता रहा था। गुरद्वारे जाकर कीर्तन, धार्मिक गीत या जगरातों पर माता की भेंटें गा देता था। विवाह-समारोहों पर जाकर वह सेहरे और शिक्षाएँ गाने का मौका भी नहीं छोड़ता था। इस प्रकार, उसके अंदर का गायक और गीतकार जवान होता गया था।
जहाँ कहीं भी धनी राम को अवसर मिलता, वह साज़ बजाने और गाने का हुनर सीखता रहता था। गाँव में धनी राम के दूर के रिश्तेदार दलजीत धूड़कोटिये की परचून की दुकान थी। धूड़कोटिये दुकान पर बैठा हरमोनियम बजाता रहता था। धनी राम समय-असमय उसके पास जाकर उससे थोड़ा-बहुत हरमोनियम सीखता रहता। धनी राम की गीतकारी भी साथ साथ चलती जाती थी। वह अपने गीत लेकर प्रसिद्ध कलाकारों के पास जाने लगा था। उसने धन्ना सिंह रंगीला, प्यारा सिंह पंछी, सीतल सिंह सीतल, नरिंदर बीबा, हरचरन ग्रेवाल जैसे कई कलाकारों को अपने गीत दिखाये और दिए थे। इस प्रकार, कोशिशें करता हुआ वह कई कलाकारों के संपर्क में आ गया था। इसके साथ ही धनी राम साज़ भी सीखता रहा और अपनी गायकी-गीतकारी को भी निखारता रहा। धनी राम जानता था कि इस समय की गई मेहनत उसकी ज़िन्दगी में अहम तब्दीली ला सकती थी। वह तन और मन से संगीत को समर्पित हो गया था। उठते-बैठते, खाते-पीते और सोते समय वह गीतों में ही खोया रहता था।
Tuesday, June 5, 2018
5 कांड -सेंध
शहीद (उपन्यास) -बलराज सिंह सिद्धू (अनुवाद -सुभाष नीरव)
धनीराम ने पंजाबी गायकी के क्षेत्र में आने के लिए पूरी कमर कस ली थी। वह लुधियाना के चर्चित गायकों के अखाड़े पर जाकर सुनता और कलाकारों से निरंतर मिलता रहता था। कलाकारों की मंडी में कुछ समय खाक छानने के बाद उसको इल्म हो गया था कि वह सीधा गायकी के अखाड़े में नहीं कूद सकता। अपनी आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण दूसरे कलाकारों की तरह पहले उसको किसी स्थापित गायक का सहारा लेना ज़रूरी था। उसे किसी चर्चित गायक की मंडली में शामिल होकर अपनी पहचान और संपर्क बनाने थे। पंजाबी गायकी के बड़े-बड़े नाम उसको पास नहीं फटकने दे रहे थे। आखि़र, लंबी सोच-विचार के बाद उसकी सोच सुरिंदर शिंदे पर आकर अटक गई थी। शिंदा न ही उस वक्त बड़ा नाम था और न ही अस्थापित। महज पाली देतवालिये का लिखा गीत - “मैं की करां करतारो गड्डी, छे सलंडर दी“ और देव थरीकियाँ वाले का लिखा- “उच्चड़ा बुर्ज लाहौर दो...“ ही शिंदे का ताज़ा ताज़ा चला था।
शिंदे ने अपनी थोड़ी-बहुत मार्किट बना ली थी। इसलिए शिंदा ही धनी राम को सबसे उपयुक्त प्रतीत हुआ था। धनी राम ने कलाकारों के जरिये मालूम कर लिया था कि शिंदे के खेमे में उसको शिंदे का ढोलक मास्टर केसर सिंह टिक्की ही प्रवेश दिला सकता था। धनी राम ने टिक्की के साथ संपर्क किया। टिक्की ने उसको एक प्रोग्राम पर बुला लिया था।
26 जनवरी 1977 को गिल्ल चैक और विश्वकर्मा चैक के बीच स्टेज बना हुआ था। अन्य अनेक कलाकारों की तरह सुरिंदर शिंदे और सुरिंदर सोनिया ने अपना प्रोग्राम पेश किया था। उस समय केसर सिंह टिक्की उनके साथ ढोलक पर था।
प्रोग्राम के बाद धनी राम, केसर सिंह टिक्की से जाकर मिला था, “टिक्की यार, मुझे शिंदे का शागिर्द बनवा दे।“
टिक्की ने कुछ सोचकर जवाब दिया, “ठीक है। तू कल नौ बजे बस अड्डे के सामने आ जाना। शिंदा भी वहीं होगा। हम बात कर लेंगे।“
धनी राम अगले दिन नौ बजने से पहले ही पहुँच गया था। लगभग दस बजे सुरिंदर शिंदा अपने नीले रंग के साइकिल पर वहाँ पहुँचा था तो टिक्की ने धनी राम का परिचय करवाते हुए उसका शागिर्द बनने की इच्छा शिंदे को बताई थी। शिंदा उन्हें प्रिथी की चायवाली दुकान पर लेकर बैठ गया, “हाँ भाई छोटे, गीत सुना कोई?“
धनी राम जानता था कि शिंदा गीतकार देव थरीकियां वाले का साढू था और जल्दी उसके गीत रिकार्ड करवा रहा था। धनी राम ने जानबूझकर देव थरीकियां वाले का लिखा गीत सुनाना आरंभ कर दिया, “इक्क मुठ हो जाओ छड़िओ, ऐदां चलणा नहीं आपणा गुज़ारा। तीवियां ने होके कट्ठियां, कल ढाह लिया छड़ा करतारा।“
सुरिंदर शिंदा उसकी गायकी पर मंत्रमुग्ध हो उठा था। दरअसल उस समय शिंदा खुद भी कोई अधिक मकबूल नहीं था। मगर शिंदा यह बात जान गया था कि धनी राम बढ़िया गाता था और थोड़ी-सी मेहनत करके काफ़ी आगे तक जा सकता था। शिंदा नहीं चाहता था कि धनी राम उसको छोड़कर किसी दूसरे गायक का शागिर्द बने। यह बात भी शिंदे को पता थी कि यदि उसने उस वक्त धनी राम को अपना शागिर्द नहीं बनाया तो वह अवश्य किसी दूसरे के पास चला जाएगा। शिंदे ने धनी राम को अपने जाल में लेने के लिए अपनी बाहों में भर लिया था, “शागिर्द नहीं, तू तो मेरा भाई है। यहाँ आ जाया कर। मैं तो खुद अभी भंवरा साहब से सीखता हूँ। तू भी उनसे सीखते रहना। मैं भी सीखता रहूँगा।“
धनी राम ने लड्डू, पगड़ी, नारियल और ग्यारह रुपये का नज़राना देकर सुरिंदर शिंदे के साथ उस्तादी-शागिर्दी का रिश्ता कायम कर लिया था। शिंदे ने एक रुपया रखकर बाकी के दस रुपये धनी राम को लौटा दिए थे। फिर, इसी तरह ही धनी राम ने जसवंत सिंह भंवरे को पगड़ी देकर दादा उस्ताद धारण करने की रस्म अदा की थी। धनी राम जब भी अवसर मिलता जसवंत भंवरे और शिंदे के पिता बचना राम से उनके नीम वाले चैक पर बने घर पर संगीत सीखने चला जाता था।
धनी राम नित्य बिना नागा नौ बजे अपने गाँव दुग्गरी से साइकिल उठाकर चाय की दुकान पर आ जाता था। शिंदा उसको मिलने आए मेहमानों की खातिरदारी में ही लगाये रखता था। शिंदे के पास भी अधिक प्रोग्राम नहीं होते थे। केसर टिक्की, कश्मीरी या प्रिथी घर से रोटी लेकर आते। दोपहर को प्रिथी चाय वाले की दुकान पर ये सब बैठकर एक साथ रोटी खाते और हँसी-मजाक करते रहते।
उस वक्त आठ सौ से लेकर पंद्रह-सोलह सौ रुपये के बीच प्रोग्राम बुक होता था। जब कभी शिंदे के लिए प्रोग्राम बुक होता तो धनी राम सहायता के लिए संग चला जाता था। कभी वह कोई धार्मिक गीत गा देता या चलते हुए कार्यक्रम में एक-आधा गीत गा देता ताकि शिंदे को कुछ देर आराम मिल सके। कभी हरमोनियम बजाता और फिर ऐसा समय भी आया कि शिंदा गा रहा होता और धनी राम तूम्बी बजा रहा होता। धनी राम तूम्बी बजाकर माइक से पीछे हट जाता और शिंदा अपना अंतरा गाने के लिए माइक पर आ जाता। शिंदा जानता था कि धनी राम उससे ज्यादा अच्छी तूम्बी बजाता था। इस प्रकार, शिंदे के साथ स्टेज पर सहायक गायक के तौर पर धनी राम अपने पैर जमाता चला गया और लोगों की नब्ज़ पकड़ता चला गया। इस तरह शिंदे के माध्यम से गायकी के क्षेत्र में सेंध लगाकर धनी राम ने अगली मंज़िल की ओर पैर रखने शुरू कर दिए थे।
Monday, June 4, 2018
6 कांड -चमकीला
शहीद (उपन्यास) -बलराज सिंह सिद्धू (अनुवाद -सुभाष नीरव)
केसर सिंह टिक्की और कुलविंदर कुक्की ने बस अड्डे के पास एक कमरा किराये पर लिया हुआ था। उस कमरे में एक बाजा, एक ढोलक और एक घड़ा पड़ा होता था। फुर्सत के समय धनी राम वहाँ जाकर रियाज़ किया करता था। टिक्की ढोलकी बजाता, कुक्की घड़ा और धनी राम हरमोनियम पकड़ कर गीत गाता रहता था। कभी कभी धनी राम उनके पास ही अंधेरा हो जाने पर सो जाया करता था। ऐसे ही, एक रात दारू पीकर धनी राम टिक्की के पास सो गया था। अगली सवेर टिक्की को प्रोग्राम पर जाना था।
केसर सिंह टिक्की अपनी ढोलक उठाकर चलने लगा था, “अच्छा धनी, मैं चला। शिंदे के साथ बुडै़ल पैंतालीस सेक्टर, चंडीगढ़ के पास रामलीला का प्रोग्राम बुक हुआ है। दस पंद्रह दिन लगेंगे वहाँ। तू पीछे से कमरे का ख्याल रखना।“
“दो हफ्ते मैं यहाँ क्या करूँगा? मेरा अकेले का तो यहाँ रियाज करने को भी दिल नहीं करेगा। घड़े वाला कुक्की भी अपने गाँव गया हुआ है। मैं भी तेरे साथ ही चलूँ?“ चारपाई पर लेटा धनी राम उठकर बैठ गया था।
“चल, हम शिंदे से पूछ लेंगे।“
दोनों बस अड्डे की ओर चल पड़े थे। दरअसल, टिक्की खुद ही धनी राम को साथ ले जाना चाहता था। उसके पीछे टिक्की का अपना स्वार्थ छिपा हुआ था। प्रोग्राम वाले पंद्रह सोलह दिन पूरी पार्टी के लोगों की सेवा टिक्की को करनी पड़ती। आमतौर पर खाने और पानी तक के सब काम टिक्की ही किया करता था। धनी राम अभी नया नया उनकी पार्टी में शामिल हुआ था। लुधियाना के गायकों की यह परंपरा रही थी कि जब कोई नया लड़का गायकी सीखने या साज़ बजाने के लिए स्टेज पर जाने लगता था तो वे उसको अपनी कला की ओर ध्यान कम ही देने देते थे। बल्कि हर समय अपनी चापलूसी करवाते रहते थे। ऐसे ही टिक्की ने अपनी जगह धनी राम को फिट कर लिया था। शिंदा या उसके साथ गई कोई गायिका जब किसी चीज़ की केसर टिक्की से फरमाइश करते तो टिक्की धनी राम को हुक्म दे देता था।
जब ये लुधियाना बस अड्डे पर पहुँचे तो वहाँ दूसरे साज़वालों के साथ स्टेज सेक्रेटरी सनमुख सिंह आज़ाद उर्फ़ मुक्खा पहले से ही टिक्की की प्रतीक्षा करते खड़े मिले। टिक्की ने धनी राम की संग चलने की बात कही तो मुक्खा हिचकिचाया था, “देख टिक्की, हमें रामलीला वालों ने पहले ही बहुत कम पैसे देने हैं। जितने कम बंदे ले जाएँ, उसमें ही हमें फायदा है। इसको पेमेंट हम नहीं दे सकते।“
“भापा जी, ये पेमेंट नहीं मांगता। यूँ ही अपने साथ चला जाएगा। हम लोगों को चाय-पानी पकड़ाएगा। और भी सौ काम होंगे, हम इससे करवाएंगे।“ टिक्की ने मुक्खा को बातों में फंसाया था।
“अच्छा, पर इसका किराया कौन देगा? शिंदा कितना लालची है, तुझे पता है। वह तो हमारे पैसों में से काट लेगा।“
“ओह हो! आप इसकी चिंता न करो। यह खुद किराया दे देगा या मैं दे दूँगा।“
“फिर ठीक है। आओ चढ़ें बस में।“
सभी बुड़ैल पहुँच गए थे। रात को रामलीला होती थी। लोगों को बांधे रखने के लिए बीच-बीच में सुरिंदर शिंदा और सोनिया एक आध गीत गा देते थे। धनी राम हरमोनियम या तूम्बी के साथ शिंदे का साथ देता था। धनी राम हर काम करने में फुर्तीला और मृदुभाषी होने के कारण प्रबंधकों की निगाह में चढ़ गया था। अगले दिन कपड़े प्रैस करता हुआ धनी राम कोई गाना गा रहा था। एक प्रबंधक ने वहाँ से गुज़रते हुए उसको सुन लिया। उस शाम प्रबंधक ने फरमाइश की थी, “तुम्हारे साथ ये जो लड़का हरमोनियम बजाता है, इसको भी रात में एक गाना गाने को टाइम दिया जाए।“
सारी गायन-पार्टी ने इस फरमाइश को मंजूर कर लिया था। शिंदे को भी कोई आपŸिा नहीं थी। लेकिन धनी राम स्टेज पर गाने से कन्नी कटाता था। जब सभी ने इस कारण पूछा तो वह बोला, “यार मेरा नाम एक गायक के रूप में कम और सेठों जैसा अधिक लगता है। जब तुम लोग धनिया कहते हो, उस समय तो बिल्कुल ही प्याज गल जाते हैं। अगला समझता है, सब्ज़ीमंडी से पकड़कर लाया गया है। गाने वालों के तो नाम जुदा ही होते हैं। तुम जब मेरा नाम स्टेज पर अनाउंस करोगे तो लोगों को यूँ लगेगा जैसे किसी लाला को बुलाया गया हो।“
“चल फिर तेरा नाम बदल देते हैं। कैसा नाम रखें तेरा?“
धनी राम ने अपनी इच्छा प्रकट की थी, “मेरा कोई अच्छा-सा नाम रखो, जैसे रंगीले जट्ट का है। ऐसा नाम जो मार्किट में चले भी। चमके भी और अमर भी हो जाए। वैसे मेरा नाम अमर सिंह संदीला है। मगर बहुत से लोगों को पता ही नहीं। मैं ‘संदीला’ इस्तेमाल नहीं करना चाहता। धांदरे वाला यह नाम इस्तेमाल करता है। लोगों को भ्रम पड़ेगा। कोई दूसरा सोचो, मेरा कोई रौबदाब वाला नाम।“
“अच्छा सोचते हैं तेरे नाम के बारे में। पर तू तैयार रहना गाने के लिए। नाम मैं खुद रख दूँगा तेरा कोई न कोई।“ मुक्खे ने तसल्ली दी थी।
शाम को नाटक चल रहा था। सनमुख सिंह आज़ाद, धनी राम के कान में कुछ कहने लगा, “ले भई काका, तू इस सीन के बाद तैयार रहना। जब मैं तुझे इशारा करूँ, तू स्टेज पर आकर अपना गीत गा देना।“
“पर मेरा नाम क्या रखा?“ धनी राम ने मुक्खे की बांह पकड़ ली थी।
“वो मैं तुझे नहीं बताऊँगा। तेरे नाम को तो दुनिया जानेगी।“ मुक्खा बांह छुड़ाकर स्टेज के पास चला गया था।
झांकी खत्म हुई तो सनमुख सिंह आज़ाद स्टेज पर जाकर दर्शकों और श्रोताओं से संबोधित हुआ, “प्यारे श्रोताओ, आज मैं आपके सामने एक बिल्कुल नया गायक पेश करने जा रहा हूँ। मैं आशा करता हूँ कि आप उसे बड़े प्रेमपूर्वक सुनोगो। वह बहुत ही सुरीला गायक है और उसका नाम है - अमर सिंह चमकीला !“
धनी राम स्टेज पर गया और उसने ‘सुच्चा सूरमा’ गीत गाना शुरू कर दिया। सभी मंत्रमुग्ध होकर उसे सुनते रहे थे। जैसे ही उसने गीत खत्म किया तो लोगों में से ‘एक और’, ‘एक और’ की फरमाइश होने लगी थी। धनी राम ने ‘जोगी टिल्लियो आ गया’ एक गीत और सुना दिया था।
उस रात सभी धनी राम को धनिया की बजाय अमर सिंह चमकीला कहकर छेड़ते रहे थे। अगले दिन जब धनी राम गली में से होकर जा रहा था तो वहाँ से दो-तीन लड़कियाँ उसकी तरफ देखकर हँसती हुई गुज़री थीं। उनमें से एक लड़की बोली थी, “री, देख तो, ये जा रहा है चमकीला जिसने रात गीत गाया था।“
उस लड़की के मुख से निकला ‘चमकीला’ शब्द धनी राम के कानों में शहद घोल गया था। एक पल के लिए तो वह खुद भी भूल गया था कि उसका नाम धनी राम था। उस दिन के बाद उसने सचमुच ही अपने नाम धनी राम को भुलाकर अपने संग अमर सिंह चमकीला जोड़ लेने का फैसला कर लिया था। तब से धनी राम ने अपने गीतों में ‘चमकीला’ उपनाम का प्रयोग करना प्रारंभ कर दिया था।
Sunday, June 3, 2018
7 कांड -सहायक गायक
शहीद (उपन्यास) -बलराज सिंह सिद्धू (अनुवाद -सुभाष नीरव)
चमकीले को घर गए कई दिन हो गए थे। एक शाम चमकीला केसर टिक्की से बोला, “आ, आज मेरे साथ चल। हम गाँव चलते हैं।“
साइकिल पर सवार होकर दोनों दुग्गरी आधी रात को पहुँच गए। दारू का अधिया वह साथ ले गए थे। टिक्की को बैठक में बिठाकर चमकीला गिलास और पानी का जग लेने गया तो टिक्की को चमकीले के संग लड़ती किसी औरत की आवाज़ें सुनाई देने लगी थीं। चमकीला बैठक में आया और ऊँची आवाज़ में रेडियो लगाकर बोला, “टिक्की, तू गाने सुन। मैं पानी लेकर आया।“
चमकीला फिर जाकर चैके में किसी औरत से लड़ने-झगड़ने लगा था। रेडियो की तेज आवाज़ के बावजूद उनके लड़ने-झगड़ने की आवाज़ टिक्की को सुनाई दे रही थी। कुछ देर बाद चमकीला बैठक में आया और रेडियो बंद करके बोला, “चल टिक्की, हम तेरे कमरे में ही चलते हैं। यहाँ आराम से हमें कोई नहीं सोने देगा।“
रात का एक बज रहा था। दोनों जने साइकिल उठाकर लुधियाना आ गए। रास्ते में टिक्की ने चमकीले से पूछा था, “वो जो जनानी तेरे साथ झगड़ती थी, वो कौन थी? तू ब्याहा हुआ है?“
चमकीला कुछ नहीं बोला था। लेकिन केसर टिक्की समझ गया था कि चमकीला विवाहित था और लड़ने वाली औरत उसकी पत्नी थी। टिक्की को ज्ञान हो गया था कि चमकीले की घरवाली के साथ नहीं बनती थी और वह घर से दुखी था। इसीलिए वह घर जाने की बात को अक्सर टालता रहता था। वह देर रात को घर जाया करता था और सवेरे मुँह-अँधेरे ही उठकर लुधियाना आ जाता था। वश चलता तो चमकीला लुधियाना में टिक्की के पास ही रात काटने को तरजीह देता था। टिक्की को किराया न दे सकने के कारण अपना किराये वाला कमरा छोड़ना पड़ गया था।
दो-तीन महीने टिक्की और चमकीला दोनों अकाल ट्रांसपोर्ट के मैनेजर हरनेक सिंह की कृपा के कारण उसकी वर्कशाॅप में सोते रहे थे। फिर, टिक्की ने तिलक राज का कमरा किराये पर ले लिया था। टिक्की ने धनी राम को अपने साथ रहने की सलाह देते हुए कहा था, “तू मेरे साथ ही किराये के कमरे में रह लिया कर। हम दोनों प्रोग्राम करके किराया आधा-आधा दे दिया करेंगे। और फिर, रोटी पानी भी हमें चाचा तिलक राज की बेटियाँ सिम्मी और बबली बनाकर खिलाती रहेंगी।“
चमकीला मान गया था और उसने टिक्की के संग रहना शुरू कर दिया था। उस दिन दुग्गरी से आकर कमरे में दोनों ने दारू का अधिया पिया और सो गए थे।
अगले रोज़ केसर टिक्की ने गुरचरन पोहली के साथ प्रोग्राम पर जाना था। टिक्की दारू का टूटा हुआ जब उठ न सका तो पोहली उसे लेने आ गया था। चमकीले को सोया देख पोहली ने पूछा था, “ये लड़का कौन है?“
“यह चमकीला है। शिंदे के साथ हैल्पर सिंगर के तौर पर जाता है।“
उस दिन पोहली की मंडली के मदन लाल ने संग नहीं जाना था। पोहली को एक आदमी की ज़रूरत थी। उसने टिक्की से पूछा था, “अगर यह खाली है तो इसे उठाकर पूछ ले। प्रोग्राम पर ले चलते हैं। और फिर, सुनकर भी देख लेते हैं, कैसा गाता है।“
यह बात सुनकर चमकीला झट-से उठकर तैयार हो गया था। अबोहर के पास गाँव गिड्डू खेडे़ में प्रोग्राम था। रास्ते में चमकीला पूछने लगा, “हम काफी दूर आ गए लगते हैं?“
पोहली ने जवाब दिया था, “घबरा मत। ये तो कुछ नहीं। हम तो राजस्थान तक जाया करते हैं।“
“घबराता नहीं। मैं तो उससे भी दूर जाया करूँगा।“ चमकीला सड़क को निहारता हुआ बोला था।
गुरचरन पोहली और प्रोमिला पम्मी ने स्टेज पर पाँच-छह गीत गाकर चमकीले को एक गीत खाने का समय दिया तो चमकीले ने अपना लिखा गीत गाया था, “कड्ढ़ लै संदूक विचों रेशमी गरारा... अग्ग दे...भम्बूके वांग मच्च भाबिये, नीं तू गिद्धे विच दिउर नाल नच्च भाबिये...।“
यह गीत सुनकर सारे श्रोता नाचने लग पड़े और चमकीले की पेमेंट से दुगने पैसे उस समय इनाम में इकट्ठे हो गए थे। पोहली ने प्रोग्राम का मेहताना दो सौ रुपये की बजाय चमकीले को ढाई सौ रुपया दिया। प्रोग्राम से लौटते हुए प्रोमिला पम्मी ने चमकीले से पूछा था, “गीत तू खुद लिखता है?“
“हाँ जी।“ चमकीले ने जवाब दिया था।
“मुझे भी कुछ गीत लिखकर देना। ऐसा कर, कल गीत लेकर नौ बजे हमारे घर आ जाना। मैं तेरे गीत देख लूँगी।“ पम्मी ने निमंत्रण दे दिया था।
तिलक राज के घर के सामने चमकीले और टिक्की को उतारकर पोहली एक शराब की बोतल भी गाड़ी में से निकालकर दे गया था। उन्होंने रात में बोतल पी और रोटी मकान मालिक तिलक राज के घर से खाकर सो गए थे।
अगले दिन गीतों वाली काॅपी लेकर चमकीला टिक्की के साथ पोहली की कोठी चला गया था। पोहली ने आदर-सत्कार के साथ उन्हें बिठाकर चाय-पानी पिलाया था। तब तक पम्मी भी आ गई थी। उसने नीचे बिछी दरी पर टिक्की को ढोलकी देकर बिठा दिया और चमकीले को बाजा पकड़ा दिया था।
“चमकीले, कोई गीत सुना।“ पम्मी ने फरमाइश की थी।
“नहीं भैण जी, पहले आप सुनाओ।“
पम्मी ने हीर की एक कली गाकर सुनाई और हरमोनियम चमकीले की ओर सरका दिया था, “ले चमकीले, अब कोई अपना गीत सुना।“
हरमोनियम पर उंगलियाँ फिराते हुए चमकीले ने पूछा था, “भैण जी, पहले सोलो सुनाऊँ या दोगाना?“
मध्यम से उच्चतम सप्तक तक हरमोनियम पर गदर मचाती चमकीले की उंगलियाँ देखकर पम्मी की आँखें फटी रह गई थीं, “मरे तेरी इतनी तैयारी है! तू हमारे साथ ही चला कर।“
“यह बात छोड़ो भैण जी, आप मेरा गीत सुनो। सोलो तो आपने कल सुन ही लिया था। आपको दोगाना सुनाता हूँ।“ चमकीले ने ‘चट्ट लै तली दे उŸो धरके, मिŸारा मैं खंड बण गई...’ गाना शुरू कर दिया था। उस गीत के खत्म होते ही चमकीले ने ‘नार बैटरी वरगी दा, दूरों लिश्कारा पै जांदा...’ छेड़ लिया था। पम्मी गीत सुनती हुई बैठी-बैठी ही झूमने लगी थी। जब चमकीला गाकर एक गीत खत्मक करता तो पम्मी उसे कह देती, “और सुना।“
चमकीला दूसरा गीत शुरू कर देता। वह जो भी गीत सुनाता, पम्मी उसको चुनकर कह देती थी, “ये गीत भी मुझे दे दे। ये गीत भी लिखवा दे। चमकीले, तेरा कोई जवाब नहीं।“
चार-पाँच गीत सुनने के बाद पम्मी पानी लेने वहाँ से उठकर गई तो चमकीला टिक्की के साथ सलाह करने लगा था, “चैड़े होकर गीत सुनाए जाते हैं और ये सारे ही मांगे जाती है। क्या करें? गीत लिखवा दें कि न?“
टिक्की पैसे को लेकर लालची किस्म का इन्सान था। उसने चमकीले को फूंक दे दी थी, “ना ! इसे पैसे लिए बिना गीत न लिखवाना। बहाना बना देना कि लिखकर दे जाऊँगा।“
पम्मी वापिस आकर दरी पर बैठी तो चमकीले ने कहा, “भैण जी, लो एक सोलो आइटम सुनकर देखो।“
चमकीले ने गीत गाना आरंभ किया था, “हत्थ अड्दी फिरदी ऐ, तारा पुŸा नूं हिक नाल ला के। दे दिओ इक दमड़ा नीं, मैं आऊणा पुŸा दी लाश जला के।“
रानी तारामती की दर्दभरी जीवनगाथा वाला यह गीत गाते हुए चमकीला की आवाज़ में करुणा और बेइंतहा का वैराग्य था। गीत के बोल कलेजे को खींचते थे। गीत सुनते हुए पम्मी की आँखें नम हो गई थीं। गीत समाप्त हुआ तो वह आँखें पोंछती हुई बोली थी, “चमकीले, दो गाने मैं बाद में लूँगी। सबसे पहले मुझे यही सोलो गीत दे दे।“
“गीत तो मैं भैण जी दे दूँगा, पर एक शर्त है। गीत तब दूँगा, यदि आप इसे रिकार्ड करवाओगे।“
पम्मी ने गीत रिकार्ड करवाने का वायदा करके उससे गीत ले लिया था और अपने वायदे को पूरा करते हुए कुछ समय बाद ही उसने उसे रिकार्ड भी करवा दिया था।
तब से चमकीला पोहली-पम्मी के साथ प्रोग्रामों पर जाने लगा था। उसके बाद माणक, शिंदा, हरचरन ग्रेवाल या जिस कलाकार को ज़रूरत होती, चमकीला उसके साथ प्रोग्रामों पर साज बजाने या सहायक गायक के तौर पर जाने लगा था। पर सार्वजनिक तौर पर वह पगड़ी बाँधकर रखता और प्रोग्रामों में उसके सिर पर पुरातन पंजाबी गवैइयों की तरह माड़ लगी शमले वाली पगड़ी होती थी।
Saturday, June 2, 2018
8 कांड -बंदा और परिन्दा
शहीद (उपन्यास) -बलराज सिंह सिद्धू (अनुवाद -सुभाष नीरव)
हरचरन ग्रेवाल, कलाकारों की मार्किट में अपना अच्छा-खासा नाम बना चुका था। या यह कह लो - पैर धरती में गड़ा चुका था। ‘मित्तरां दे ट्यूवल ते, लीड़े धोण दे बहाने आ जा...’, ‘अद्धी रात तक मैं पढ़दी, तैनूं चिट्ठियाँ लिखण दी मारी...’, ‘मित्तरा मैं बोतल नाभे दी...’ उसके अनेक गीत मकबूल हो चुके थे। गायकी और कंठ में वह पूरा जट्ट होता था, पर पैसे के मामले में पूरा बनिया बन जाता था। किसी को मरी जूँ देकर भी राजी नहीं था। यहाँ तक की अपने साज़िन्दों को भी पूरे पैसे नहीं देता था। संगीत और सहायक गायिका, प्रेमिका सुरिंदर सीमा(जो बाद में उसकी पत्नी भी बनी) के बाद ग्रेवाल का समय शराब और शिकार में गुज़रता था।
ग्रेवाल को खासे प्रोग्राम बुक होते थे और चमकीला उसके साथ बाजा बजाने पर जाया करता था। चमकीले को वह चालीस रुपये दिहाड़ी के देता था। जब कभी राजस्थान की ओर हरचरन ग्रेवाल के प्रोग्राम बुक होते तो प्रोग्रामों के बाद वह अपने साजिन्दों को लेकर शिकार खेलने निकल जाता था। रायफल के बैरल के ऊपर फिट दूरबीन के सहारे ग्रेवाल का निशाना बिल्कुल सही जाकर लगता था। तीतर का मीट खाने का वह पूरा शौकीन था।
उस दिन भी बीकानेर के पास किसी गाँव में हरचरन ग्रेवाल का अखाड़ा लगा था। वहाँ उम्मीद से अधिक पैसे इकट्ठे हो गए थे। पर फिर भी ग्रेवाल ने पेटी बजाने साथ आए चमकीले को उस दिन की दिहाड़ी में से पाँच रुपये कम दिए थे। चमकीले ने बिना कोई आनाकानी किए चालीस रुपये की बजाय पैंतीस रुपये ही पकड़कर जेब में डाल लिए थे।
साजिन्दों को ग्रेवाल अक्सर मजाक में ‘तीतर’ कहकर बुलाया करता था। बिना बात के किसी भी साजिन्दे का अपमान करना वह अपना हक़ समझता था। प्रोग्राम के बाद जब घर वाले रोटी पूछने के लिए आए तो उन्होंने पूछा था, “कितने बंदों की रोटी लेकर आएँ?“
इसका ग्रेवाल ने कुछ इस तरह जवाब दिया था, “मैं, सीमा और ड्राइवर हम तीन बंदे हैं और कुक्की घड़े वाला, चमकीला बाजे वाला और लक्खा ढोलकी वाला तीन साजिन्दे।“
साजिन्दों को वह बंदे ही नहीं समझता था। उसकी शोहरत और हेकड़ी उसकी हरकतों में से बोला करती थी। दारू पीकर ग्रेवाल साजिन्दों पर रौब गालिब करने के लिए उन्हें रेतीले टीलों और झाड़ों की तरफ ले चला था।
अभी वे ग्रेवाल की किराये की अम्बैसडर कार में कुछ दूर ही गए थे कि ग्रेवाल को एक तीतरों की कतार दिख गई। ग्रेवाल में कार में बैठे बैठे ही दूरबीन से देखते हुए रायफल का निशाना लगाया और एक जानवर उल्टा कर दिया।
“जा कुक्की, उठा ला। आज रोटी स्वाद से खाएँगे।“
घड़ा बजाने वाला कलविंदर कुक्की मरा हुआ तीतर उठाने चला गया था। ग्रेवाल, चमकीला और कार का ड्राइवर नेका गाड़ी में से उतरकर बाहर खड़े हो गए थे। ग्रेवाल ने कार के बोनट पर दारू की बोतल और गिलास रखकर अपने लिए मोटा-सा पैग बनाया और एक ही साँस में गटागट खींच गया। आधी बोतल तो उसने रास्ते में आते हुए ही खाली कर दी थी। नशे की लोर में ग्रेवाल के पैर डगमगाने लगे थे और ज़बान थिरकने लगी थी।
कुक्की मरे हुए दो तीतर उठाकर ग्रेवाल के करीब आया, “उस्ताद जी, ये दो गिरे पड़े थे।“
“देखा, इसे कहते हैं, एक तीर से दो निशाने लगाना। इन चूजों में से तो मुश्किल से पावभर मीट भी नहीं निकलेगा। फेंक पीछे गाड़ी में। मैं दो-चार और मारता हूँ।“ ग्रेवाल नशे के सुरूर में दुपहर की धूप की तरह खिला हुआ था।
हरचरन ग्रेवाल ने रायफल भरकर निशाना लगाने के लिए एक आँख मूंदी और दूसरी दूरबीन में गाड़ते हुए उसने घोड़ा दबा दिया। इस बार तीतर कोई नहीं मरा था, उसका फायर खाली गया था।
“उस्ताद जी, इस बार तो गोली की आवाज़ सुनकर पहले ही पंछी उड़ गए जी।“ चमकीला बोल पड़ा था।
यह सुनकर ग्रेवाल को खीझ चढ़ गई थी। उसने एक और तगड़ा-सा पैग पिया और शेखी मारने लग पड़ा था, “ओ चमकीले, देखना अब जट्ट बिना निशाना लगाकर दिखाएगा तुझको। देखते रहना।“
दूर ऊँचे टीले पर बैठे पंछियों के घने झुंड की ओर रायफल तानकर ग्रेवाल ने उल्टी दिशा में घुमाया और घोड़ा दबा दिया था। एक तीतर हवा में उछलकर गिर पड़ा था और बाकी गोली की आवाज़ से उड़ गए थे।
ग्रेवाल बिना देखे निशाना लगाने के कारण मचल उठा था, “जा कुक्की, तू उठाये चल, मैं मार मार फेंके जाऊँगा।“
ग्रेवाल ने फिर बिना देखे गोली चलायी थी। कुक्की दौड़कर टीले पर जा चढ़ा था।
“उस्ताद जी, एक भी नहीं मरा इस बार तो।“ टीले पर से कुक्की ने हाथ खड़े करके दिखाये थे।
ग्रेवाल और आवेश में आ गया था, “ले फिर, अब देखना।“
ग्रेवाल ने बोतल मुँह से लगाकर एक और घूंट भरा और रायफल दुबारा लोड करके विपरीत दिशा में देखते हुए निशाना लगाने की तैयारी करने लगा। चमकीला, ग्रेवाल की रायफल का मुँह कुक्की की तरफ देखकर घबरा गया था। दौड़कर चमकीले ने रायफल की नली को झपटकर आसमान की ओर जैसे ही किया तो रायफल में से एक गोली निकलकर आकाश की ओर चली गई थी।
“ग्रेवाल साहब, आज आप इतने नशे में हो कि आपको बंदे भी परिन्दे दिखाई देने लगे हैं। होश में आओ। अगर गोली कुक्की के लग जाती तो फांसी के फंदे पर मरे हुए तीतर की तरह आप लटकते होते। पुलिस आपको बंदे से परिन्दा एक मिनट में बना देती। शोहरत के नशे में इतने अँधे नहीं हुआ करते कि बंदे और परिन्दे के बीच का अंतर ही भूल जाएँ।“
चमकीले की बात सुनकर ग्रेवाल की शराब एकदम उतर गई थी। उसने पाँच रुपये का नोट निकालकर चमकीले को दिया था और माथे का पसीना पोंछते हुए गाड़ी में बैठ गया था।
Friday, June 1, 2018
9 कांड -चिंगारी
‘पुत्त जट्टां दे’ फिल्म में देव थरीकियांवाले का लिखा हुआ शीर्षक गीत सुरिंदर शिंदे ने रिकार्ड करवाना था। शिंदा अपने साथ दिल्ली में चमकीले और कुलदीप पारस को भी बैकिंग करने के लिए ले गया। उस गीत में चमकीले, कुलदीप पारस और पाली देतवालिये ने कोरस गाया था। उसके उपरांत ‘नैणां दे वणजारे’ कैसिट में शिंदे ने ‘मिरज़ा’ गाना था। उसका कोरस बोलने के लिए भी चमकीला साथ चला गया था। रिकार्डिंग पर शिंदे के साथ जाने के कारण चमकीले ने संगीतकार चरनजीत आहूजे के साथ अपनी निकटता पैदा कर ली थी।
एक दिन प्रोग्रोम पर जाते समय केसर टिक्की, शिंदे से कहने लगा, “उस्ताद जी, अपना चमकीला भी बहुत बढि़या गीत लिखता है। एक-आधा इसका गीत भी रिकार्ड करवा दो।“
“क्या?...चमकीले तू गीत लिख लेता है? सवेरे दिखाना अपना कोई गीत।“
अगले दिन चमकीला ‘मैं डिग्गी तिलक के, छड़े जेठ ने चक्की’ गीत शिंदे के पास ले गया था। गीत सुनकर शिंदा बोला, “यह तूने खुद लिखा है? पतंदर, गीत के बोल बहुत तीखे हैं।“
“आप ज़रा रिकार्ड करवाओ उस्ताद जी, गीत चलेगा देखना।“ चमकीला गर्व के साथ बोला था।
शिंदे ने सुरिंदर सोनिया के साथ गीत रिकार्ड करवा दिया था। वैसे चमकीले का यही गीत करतार रमले और सुखवंत सुक्खी ने भी रिकार्ड करवाने के लिए तैयार किया हुआ था। गीत सचमुच ही चल गया था। उसके बाद शिंदे ने तीन और गीत ‘दुध वांग तू फट गई, बिना जाग तों पतलिये नारे’, ‘पतली पतंग कुड़ी फुल्ल वरगी, कढ़दी दरां विच फुलकारी’ और ‘दे गया नीं डुब्ब जाणी दा, जेठ गुग्गल दी धूणी’ चमकीले से लेकर सुरिंदर सोनिया के साथ रिकार्ड करवाये थे। इन गीतों के साथ चमकीले का नाम एक गीतकार के तौर पर स्थापित हो गया था। फिर उसके गीत प्यारा सिंह पंछी, नरिंदर बीबा और कुछ अन्य गायकों ने भी रिकार्ड करवा दिए थे।
शिंदे की रिकार्डिंगं के समय चमकीले ने चरनजीत आहूजा को अपने गीत सुनाये हुए थे। चरनजीत आहूजा को चमकीले की गायकी और गीतकारी पसंद आ गई थी। चरनजीत आहूजा ने चमकीले से कहा था, “जब अगली बार आएगा तो अपने और गीत साथ लेकर आना। तुझसे सुनेंगे।“
सुरिंदर शिंदे ने ‘तीआं लोंगोवाल दीआं’ वाला गीत टेप पर रिकार्ड करवाना था। चमकीला बस में दिल्ली की ओर शिंदे के साथ जा रहा था। अम्बाला के पास जाकर शिंदे ने याद करवाया था, “चमकीले, अपने गीतों वाली काॅपी साथ लेकर आया है न?“
“ओ तेरी! वो तो भूल ही गया जी। रिकार्डिंग तो कल को है। मैं वापस जाकर ले आता हूँ और आपसे दिल्ली में मिलता हूँ।“ वहाँ बस से उतरकर चमकीला वापस आ गया और डायरी लेकर दिल्ली की ओर चल दिया था।
शिंदे की रिकार्डिंग के बाद चमकीले ने अपने गीत सुनाये तो चरनजीत आहूजा ने चमकीले से कहा था, “तुझे ग्रामीण संस्कृति का ज्ञान है और तेरी शब्दों पर पकड़ है। तू तैयारी करके आना, तेरी रिकार्डिंग के बारे में मैं कंपनी से सिफारिश करूँगा।“
इस प्रकार, रिकार्डिंग के सपने का बीज चमकीले के मन के अंदर अंकुरित होना शुरू हो गया था, पर न तो वह स्वतंत्र रूप में गाता था और न ही उसके पास कोई सहायक गायिका थी। इसलिए रिकार्डिंग वाली बात को चमकीले ने गर्मजोशी से तो न लिया, पर इस ख्याल को उसने अपने से अलग करके भी नहीं फेंका था। एक दिन लाउड स्पीकरों में अपने गीत सुनने की लालसा और चिंगारी उसके अंदर प्रज्जवलित होकर भड़कने लग पड़ी थी।
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