Thursday, May 31, 2018

11-पाँच भाई, एक बापू तेरा



जब ‘टकूए ते टकूआ खड़के’ गीत अमर सिंह चमकीले ने पहली बार सुरिंदर सोनिया को दिखलाया था तो सोनिया ने चमकीले से कहा था, “चमकीले, ये गीत गरम सा है। इसमें खड़का-दड़का सा ज्यादा है। कोई दूसरा गीत तैयार कर लेते हैं।“

“पंजाबी के गीत ऐसे ही होते हैं। आप रिकार्ड तो करवाओ। गीत को खड़कता देखना।“ चमकीले ने गर्व के साथ उत्साहित होकर जवाब दिया था।

गीत रिकार्ड होकर मार्किट में आया तो चारों ओर धूम मच गई थी। हर तरफ ‘टकूए ते टकूआ खड़के’ बज रहा था। सोनिया और चमकीला गुरदासपुर में कार्यक्रम करने गए हुए थे। कार्यक्रम में इस गीत की तीन बार फरमाइश हुई थी।

एक भगवे वस्त्रों वाले साधू ने तो इस गीत पर खुश होकर पाँच-पाँच, दस-दस के नोट अनेक बार इनाम में भी दिए थे। तीन चार बार चमकीले और सोनिया ने यही गीत गाया था। 

कार्यक्रम की समाप्ति पर वही साधू चमकीले के पास आकर पचास रुपये इनाम के तौर पर देने लगा तो सोनिया ने साधू से पूछ लिया था, “बाबा जी, आपको क्या अच्छा लगा इस गीत में?“

साधू बड़े धैर्य के साथ बोला था, “बीबा, कुछ भी बुरा नहीं है इस गीत में। सारा गीत ही बढ़िया है। इस आध्यात्मिक गीत में मनुष्य जीव की परमात्मा के साथ लौ लगने का वर्णन है। ‘तेरे भाइयाँ नाल पै गई दुश्मणी, तेरे नाल पै गई यारी...पंज भाई, इक बापू तेरा, रिश्तेदारी भारी। जे तैथों नहीं निभदी, छड्ड दे वैरने यारी।’ इस में पाँच भाई मनुष्य शरीर के पाँच तत्वों को कहा गया है। बाूप अकाल पुरुष है। विषय-विकार मनुष्य को परमात्मा से तोड़कर अपनी ओर खींचते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार जैसे विकारों और प्रभु भक्ति के बीच खड़े इंसान की अवस्था का वर्णन है इस गीत में...।“

“अच्छा, यह अर्थ हैं गीत के। मैं तो कुछ और ही गंदे से अर्थ निकाल रही थी।“ साधू द्वारा की गई गीत की व्याख्या सुनकर सोनिया दंग रह गई थी।

“जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि, बच्चा ! गीत या शब्द गंदे नहीं होते बीबी। इंसान की सोच गंदी होती है, जो अपने अनुसार हर बात के अर्थ निकालती है। बढ़िया सोच बढ़िया अर्थ सर्जित किया करती है। गंदा जे़हन गंदा ही सोचा करता है।“ कहकर साधू चला गया था।

लेकिन सुरिंदर सोनिया के कानों में उसके बोल काफ़ी समय तक गूंजते रहे थे।


Wednesday, May 30, 2018

12-शोहरत की सीढ़ी

पहले ही ई.पी. के साथ अमर सिंह चमकीले ने पंजाबी संगीत की दुनिया में एक तहलका मचा दिया था। कलाकारों ने इस ओर कोई अधिक ध्यान नहीं दिया। या कह लो, वे ध्यान देना नहीं चाहते थे। इस समय स्थापित कलाकारों को चमकीले से कोई अधिक ख़तरा महसूस नहीं हुआ था। चमकीले और सुरिंदर सोनिया के पास कार्यक्रमों की झड़ी लग गई थी। चमकीले के गीत हर तरफ बजने लगे थे। एच.एम.वी. वालों ने तेज़ी के साथ चमकीले के गीत बिकते देखे तो उन्होंने चमकीले को कम से कम बीस गीत और तैयार करने के लिए कह दिया।

चमकीले और सोनिया को कार्यक्रमों से फुरसत नहीं मिलती थी। रिकार्डिंग के लिए तो सोचने का भी उनके पास समय नही होता था। लेकिन चमकीले ने कार्यक्रमों की अपेक्षा रिकार्डिंग करने को तरजीह दी और उसने सोनिया को भी इस तरफ ध्यान देने के लिए कहा था।

समय निकालकर चमकीले ने सोनिया के साथ चार गीत और तैयार किए थे। ‘इक कुड़ती सŸा रंग दी’, ‘बापू साडा गुम्म हो गया’, ‘ठेके ते घर पा लैणा’ और ‘आटे वांगू गुंन्हती बिगाने पुŸा ने’।

‘बापू साडा गुम्म हो गया’ गीत की तैयारी करते समय सोनिया ने झिझकते-झिझकते चमकीले से कहा था, “इस गीत की लाइनें थोड़ी ठंडी कर ले। लोगों को हज़म हो जाएगा?“

चमकीला तुरंत बोल उठा था, “हमारे गाँवों में ऐसा ही कुछ चलता है। लोगों ने तो डकार भी नहीं लेना।“

सोनिया चुप लगा गई थी। सोनिया को ‘आटे वांगू गुन्हती बिगाने पुŸा ने’ वाले गीत से भी हिचकिचाहट थी। लेकिन उसके बारे में उसने चमकीले से कुछ नहीं गया था। जब रिकार्डिंग करवाने गए तो सोनिया बहाने से ज़हीर अहमद को एक तरफ ले गई और बोली, “ज़हीर साहब, यह आटे वांगू गुन्हती वाला गीत नहीं चलेगा। आप इसे रिकार्ड न करो। जवाब दे दो।“

ज़हीर अहमद हँस पड़ा था, “मैडम, मैंने अपनी सारी उम्र इसी इंडस्ट्री में खपा दी है। मुझे पता है, गीत यही चलेगा और सबसे पहले रिकार्ड इसे ही करना है। तुम बेफ्रिक होकर रिकार्ड करवा दो। गीत में कोई खराबी नहीं है। एक नई ब्याहता अपने पुराने आशिक को घुमा फिराकर पीछा छुड़ाने के लिए बता रही है कि वह अपनी ससुराल में खुश है। खाते-पीते ज़मीदार की औरतें सारा दिन कामधंधे में व्यस्त रहने के कारण दबी-मसली पड़ी होती हैं। उनकी हालत को आटे की तरह गूंधने के बिंब रूप में उभारा गया है। क्या बुरा है इसमें?“

कंपनी ने जब यह गीत जारी किए तो बाज़ार में आते ही ये चारों के चारों हिट हो गए थे। चमकीला और सोनिया कार्यक्रमों में और अधिक व्यस्त रहने लग पड़े थे। इस रिकार्डिंग के साथ चमकीला शोहरत की सीढ़ी का एक पायदान और ऊपर चढ़ गया था।

Tuesday, May 29, 2018

13-जंग का बिगुल

अमर सिंह चमकीले और सुरिंदर सोनिया के आठ के आठ गीत मार्किट में धूम मचा रहे थे। कार्यक्रमों की तो जैसे बाढ़ आ गई थी। एक दिन में दो दो कार्यक्रम भी बुक हो जाते थे।

इस समय तक चमकीला को सोनिया अपने सहायक कलाकार के तौर पर ले जाया करती थी। कार्यक्रम सुरिंदर सोनिया का पति कश्मीरी लाल बुक किया करता था। चमकीला को प्रति कार्यक्रम डेढ़ सौ रुपया दिया जाता था।

चमकीला ने केसर टिक्की के साथ परामर्श किया, “गीत मैं लिखता हूँ और तैयारी करवाने से लेकर कार्यक्रम तक सब मेरी मेहनत होती है। पैसा तो सोनिया और उसका पति बनाये जा रहे हैं। अब मेरे पैसे बढ़ने चाहिएँ।“

टिक्की ने भी चमकीले को चढ़ा दिया था, “हाँ, तू आज के बाद से मेहताना दुगना लिया कर।“

कश्मीरी लाल ने जयपुर-जोधपुर की ओर बाबा विश्वकर्मा का कोई कार्यक्रम बुक कर लिया था। कार्यक्रम दीवाली से दूसरे दिन का था। लेकिन बहुत दूर होने के कारण कार्यक्रम के लिए निकलना दीवाली के दिन ही था। कश्मीरी लाल ने चमकीले और टिक्की को प्रोग्राम के बारे में बताने के लिए अपने दफ्तर में बुलाया।

कश्मीरी लाल ने कार्यक्रम के बारे में सारा ब्यौरा बताकर चमकीले को तैयार होकर चलने के लिए कहा तो चमकीला मुकर गया, “मैं तो नहीं जाऊँगा। तुम जिसे चाहे ले जाओ।“

“क्यों? जाएगा क्यों नहीं?“ कश्मीरी लाल को झटका लगा था।

चमकीला ने टिक्की की ओर इशारा कर दिया, “इससे पूछ लो।“

कश्मीरी लाल टिक्की की ओर मुखातिब हुआ, “हाँ भई, क्यों नहीं जाना?“

“चमकीला कहता है, अब से यह कार्यक्रम का तीन सौ रुपया लिया करेगा।“

टिक्की ने रहस्य खोला तो कश्मीरी लाल भड़क उठा, “बड़ा आया तीन सौ का! तुम्हारे बाप का राज है? प्रोग्राम खराब करना है, जितना मरज़ी कर लो। प्रोग्राम तो हम करके ही आएँगे।“

कश्मीरी लाल ने कुछ देर दोनों की प्रतिक्रिया देखी और फिर टिक्की से संबोधित हुआ, “टिक्की समझा इसे। इसका दिमाग खराब हो गया है।“

“दिमाग खराब नहीं हुआ जी, अब तो ठीक हुआ है। तीन सौ के हिसाब से दो दिनों के छह सौ बनते हैं। पैसे पकड़ाओ, चला चलता हूँ। नहीं तो अपनी राम राम।“ चमकीला बोले बिना रह नहीं सका।

“तू ले लेना तीन सौ, जो तुम्हें देता है। प्रोग्राम तो हम करके आएँगे। जैसे मरज़ी करके आएँ।“ कश्मीरी लाल गुस्से में झाग फेंक रहा था।

चमकीला और टिक्की, कश्मीरी लाल के दफ्तर में से उठकर बाहर आ गए। कश्मीरी लाल अपने घर गया और उसने सोनिया को सारी बात बताई। सोनिया भी कहने लगी, “अगर चमकीले को तीन सौ देंगे तो हमें क्या बचेगा?“

कश्मीरी लाल, अजायब राय और मनजीत भुल्लर को लेकर राजस्थान चला गया था। तब लोग चमकीले के गीतों से परिचित थे, लेकिन उसे देखा नहीं था। कश्मीरी लाल ने अजायब राय को सोनिया के साथ अमर सिंह चमकीला बनाकर पेश कर दिया। मनजीत भुल्लर को उन्होंने सहायक गायिका बताकर प्रोग्राम करवा लिया। इधर घर में खाली बैठा टिक्की चमकीले से बोला, “अच्छी दीवाली आई है! अपना दीवाला निकाल गई। सोनिया तो प्रोग्राम कर रही है। हम खाली बैठे हैं।“

“खाली नहीं बैठे, अपना काम तो अब ही शुरू होगा।“ चमकीला के अंदर से आत्म-विश्वास बोल रहा था।

“क्या मतलब है तेरा?“

“अब मैं किसी के साथ नहीं जाया करूँगा। बल्कि लोग मेरे साथ जाया करेंगे।“ चमकीले ने मूंछ मरोड़ते हुए कहा।

“क्या योजना है तेरी? मुझे भी खुलकर बता।“

“सबसे पहले तो हमें अपना दफ्तर चाहिए। किसी न किसी तरह हम इसी कश्मीरी लाल वाले दफ्तर पर कब्ज़ा करें। यह बढ़िया ठिकाने पर है।“

“ये कलाकारों के सारे दफ्तर मोगे वाले वैद्य गुरबचन सिंह के हैं। हम मोगा उनके लड़के तरसेम के पास चलते हैं।“

चमकीला और टिक्की ने बस ली और सीधे मोगा जा पहुँचे। वहाँ पहुँचते उन्हें तरसेम का चाचा डाॅक्टर बचिŸार सिंह मिल गया। उसने बता दिया था कि तरसेम ऊपर चैबारे में लेटा है। चमकीला और टिक्की चैबारे पर चढ़ गए और उन्होंने तरसेम को अपने आने का मंतव्य बताया। तरसेम ने दफ्तर देने के लिए हामी भर दी, “कश्मीरी लाल से हमने क्या लेना? दफ्तर अब तुम्हारा। वो किराया ठीक से नहीं देता। उसे तो यूँ भी निकालना ही था।“

“तरसेम भाई, जो तू किराया कहेगा, मैं दे दिया करूँगा।“ चमकीला खुश था।

“ठीक है। जो वो देता है, तुम वही दिए जाओ।“ तरसेम ने बात खत्म की।

उसके बाद तरसेम ने नौकर को कहकर बोतल मंगवा ली। शराब पीते हुए आधी बोतल से ज्यादा अंदर उतर गई थी। चमकीला अच्छा-खासा शराबी हो गया था। बार बार वह तरसेम से कहता रहा, “तरसेम, अगर तू मेरा बड़ा भाई है तो दफ्तर मुझे दे दे।“

तरसेम उसे कहता रहा, “चमकीले, जब तक मैं जिंदा हूँ, दफ्तर तेरा।“

बात आई-गई करके तरसेम दूसरा विषय छेड़ लेता। चमकीले को कुछ देर बाद फिर दफ्तर की याद हो आती। वह फिर कहने लग जाता, “तरसेम, भाई बनकर दफ्तर मुझे दे दे पक्का।“

पाँच-दस बार तो तरसेम टालता रहा था। जब चमकीला नहीं टला तो तरसेम ऊबकर बोला, “कह तो दिया यार, दफ्तर तेरा है। अब मैं दफ्तर तेरे हाथ में पकड़ा दूँ?“

“हाँ, तू हाथ में पकड़ा भाई। मुझे तो दफ्तर के अंदर घुसा कर आ जल्दी।“ कहकर चमकीला बच्चों की भाँति रोने लगा।

चमकीले को बहलाकर तरसेम बोला, “चल हम अभी चलते हैं।“

उसने जीप निकाली और बीच में एक-दो आदमी और बिठाए। चमकीला और टिक्की के साथ सवेरे के तीन चार बजे लुधियाना की ओर चल पड़े। दफ्तर पहुँचकर पहले तो ताला तोड़कर दफ्तर में पड़ा सामान निकालकर चैबारे पर चढ़ाया। फिर बोर्ड उतारकर दुग्गरी वाली नहर में बहाया और फिर टिक्की के किराये वाले कमरे में जाकर सब सो गए। अगले दिन सवेरे उठकर सबने सलाह की कि श्री गुरू ग्रंथ साहिब का प्रकाश करवाया जाए। करीब ही गुरद्वारे में से बीड़ लाकर सात दिनों का सहज पाठ रखवा दिया। आता जाता हर कोई आकर माथा टेकता और कश्मीरी लाल के बोर्ड के बारे में पूछता। तरसेम हरेक को एक ही जवाब देता, “बोर्ड तो भाई कीरतपुर पहुँच गया है।“

चमकीले के पास फर्नीचर लेने के लिए पैसे नहीं थे। उसने तरसेम की मिन्नत की तो उसने सात कुर्सियाँ और एक मेज़ भी लेकर दिया। इस प्रकार चमकीले ने दफ्तर पर कब्ज़ा करके पंजाबी गायकी की जंग का मैदान में अपनी आमद का बिगुल बजा दिया था।

Monday, May 28, 2018

14-पहला कार्यक्रम

दफ्तर खोलते ही तीन प्रोग्राम बुक हो गए थे - एक दाना मंडी, मुक्खू का, दूसरा जालंधर के करीब चिट्टी गाँव का और तीसरा तहसील नकोदर में बिल्ली वडैच का। पैंतीस सौ के हिसाब से बुक हुए इन कार्यक्रमों में से पाँच-पाँच रुपये अडवांस में मिल गए थे। चमकीला मारे खुशी के नाचने लग पड़ा था।

टिक्की ने चमकीले को झकझोरा था, “प्रोग्राम तो बुक कर लिए, अब अपने साथ गायिका कौन-सी ले जाएगा?“

चमकीला को अचानक याद आया था, “हाँ यार, यह तो मैंने सोचा ही नहीं। अब क्या करें?“

“शिंदे के दफ्तर चलकर पूछते हैं। वहाँ कोई महिला आर्टिस्ट मिल जाए।“ टिक्की ने सलाह दी थी।

“ठीक है चल।“ चमकीला उठकर चल दिया था।

वैसे सोनिया के साथ कार्यक्रम करते समय कई बार वह अमर नूरी को संग ले जाया करते थे। पर अमर नूरी का झुकाव फिल्मों और टेलीविजन की ओर अधिक था। इसके अलावा वह दूसरे गायकों के साथ प्रोग्रामों में व्यस्त रहती थी।

अभी वे सुरिंदर शिंदे के दफ्तर की तरफ जा ही रहे थे कि चमकीले को ऊषा किरन का ख्याल आ गया था। ऊषा किरन कभी कभी शिंदे के साथ गाने के लिए जाया करती थी। 

चमकीला जानता था कि ऊषा का पति रामजीत मौजी, नेकी कातिल के दफ्तर में मिलेगा। चमकीला और टिक्की मौजी से जाकर मिले। मौजी ने खुशी खुशी स्वीकृति दे दी। वहाँ से लौटते हुए टिक्की ने चमकीले को सलाह दी थी, “ऊषा की आवाज़ तेरे साथ मेल नहीं खाती। तू कोई और लड़की तलाश जो तेरे बराबर भिड़कर गा सके। हम शिंदे के दफ्तर चलते हैं, छŸाीस लड़कियाँ मिल जाएँगी।“

केसर टिक्की की बात चमकीला के दिल को लग गई थी। वह टिक्की के साथ शिंदे के दफ्तर चला गया था। वहाँ कोमेडी कलाकार प्रिथीपाल सिंह ढक्कन बैठा था। चमकीले ने उसे अपनी समस्या से उसे परिचित करवाया, “हमारे पास तीन प्रोग्राम बुक हो गए हैं, पर पंगा यह है कि साथ ले जाने के लिए कोई गायिका नहीं है।“

ढक्कन लारें टपकाने लग पड़ा था, “पहले एक बोतल शराब और आधा किलो शूअर का अचार लेकर आओ। फिर तुम्हारा मसला हल कर देता हूँ।“

चमकीला भागकर बोतल और अचार ले आया।

शराब की बोतल खाली हुई तो चमकीला ने ढक्कन को याद दिलाया, “हाँ, बता फिर। क्या है हमारे मसले का हल?“

“ले भई, स्कीम मैं तुम्हें बता देता हूँ। कोशिश तुम्हें करनी है।“

“जल्दी बता, क्या स्कीम है?“ चमकीला उतावला हुआ पड़ा था।

“माणक के साथ फरीदकोट वाले ज्ञानी गुरचरन सिंह मट्टू की एक लड़की गाया करती थी, अमरजोत। माणक के साथ उसका सैट टूट गया है। माणक का तुम्हें पता ही है, दारू पीकर पगला जाता है। तुम उसे मनाकर संग ले जाओ। सुंदर गाती है। वैसे देखने में भी सुंदर है।“

“उसको तो तू जानता है। ऐसा कर, तुझे पचासेक रुपये दे देंगे। तू हमारा काम करा दे।“ चमकीले ने ढक्कन को लालच दिया था।

ढक्कन चमकीले की मज़बूरी समझता था, बोला, “ऐसा कर, फिर एक बोतल और ले आ।“

चमकीला एक बोतल और खरीद लाया था। वह पीकर ढक्कन अपने मटके जैसे पेट पर हाथ फेरता हुआ मुकर गया था, “नहीं भाई। मैं नहीं जा सकता। मैं दफ्तर छोड़कर गया तो शिंदा मुझे गुस्सा होगा। तुम अपना काम आप संवारो। रास्ता मैंने तुम्हें बता दिया है। अब उस पर चलना तुम्हें खुद है।“

टिक्की बीच में बोल पड़ा था, “चल छोड़ इसे चमकीले, मैं जाता हूँ फरीदकोट। मुझे दे किराया।“

चमकीले ने झट से डेढ़ सौ रुपया जेब में से निकालकर टिक्की के सामने रख दिया था, “यह उठा। सारा काम फिट करके अमरजोत को साथ लेकर आना।“

वे बारह बजे बैठे थे पीने, पीते पीते तीन बज गए थे। टिक्की जब नीचे उतरा तो उसको पता चला था कि अमरजोत का पिता रंगीले जट्ट के दफ्तर में बैठा है। वह अमरजोत को रंगीले जट्ट के साथ सैट बनवाने आया था। टिक्की रंगीले जट्ट के दफ्तर में चला गया उससे मिलने। 

“सतिश्री अकाल भापा जी। आपके साथ बात करनी थी।“

“मैं कोई प्राइवेट बात कर रहा हूँ। तुम चलो, मैं करीब आधे घंटे बाद तुमसे मिलता हूँ।“ अमरजोत के पिता ने टिक्की को टरका दिया था।

“जी ठीक है। मिलकर ज़रूर जाना। बहुत ज़रूरी बात करनी है आपके साथ।“

“हाँ, तुम बाहर चलो। मैं आता हूँ।“

टिक्की बाहर आकर वही खड़ा हो गया और उसने चमकीले को संदेशा भिजवाकर बुला लिया। 

चमकीला जब वहाँ पहुँचा तो टिक्की बताने लगा, “चमकीले, मैं फरीदकोट हो आया।“

“क्या मतलब?“

“प्यासा ही कुएँ के पास आ गया है। अमरजोत का बापू ऊपर रंगीले जट्ट के दफ्तर में बैठा है।“

यह सुनकर चमकीले को चाव चढ़ गया था, “जल्दी ला उसे दफ्तर में।“

“नहीं, दफ्तर में नहीं। हम उसको अपने कमरे में ले चलते हैं। वहाँ परदे में बात हो जाएगी। यहाँ सारी मार्किट में शोर मच जाएगा।“ टिक्की ने दूर की सोचकर बात की थी।

कुछ देर बाद अमरजोत का पिता नीचे उतर आया और दोनों जने उसे अपने कमरे में ले गए। रंगीले जट्ट के साथ बात में सफलता न मिलने के कारण अमरजोत का पिता आसानी से मान गया था। शर्तों के अनुसार छह सौ रुपया प्रति प्रोग्राम और दो लोगों का फरीदकोट से आने-जाने का किराया तय हो गया था। चमकीले ने अमरजोत के पिता की बहुत सेवा की और रौब डालने के लिए बताया था कि सोनिया के साथ उसके कौन कौन से गीत आए थे। रात को अमरजोत का पिता उनके पास ही ठहर गया और अगले दिन सवेरे वह फरीदकोट लौट गया था।

अमरतोज के पिता ने जब अमरजोत को चमकीले के बारे में बताया तो उसने झिझक प्रकट करते हुए कहा था, “नया बंदा है। हमें उसके स्वभाव और डीलिंग के बारे में कुछ नहीं पता।“

अमरजोत के पिता ने चमकीले की तारीफ़ करते हुए कहा था, “स्वभाव तो बहुत बढ़िया है। बंदा भी शरीफ लगता है। अगर न ठीक लगा तो एक दो प्रोग्राम करके जवाब दे देंगे।“

अमरजोत राज़ी हो गई थी। अगले दिन अमरजोत अपने भाई जसपाल सिंह पप्पू को संग लेकर चमकीले के दफ्तर में सवेरे सवेरे ही पहुँच गई। चमकीला अभी गाँव से नहीं आया था। टिक्की उन दोनों बहन-भाई को अपने कमरे पर ले गया। वहाँ उसने उनके लिए चाय मंगवाई और कहा, “आप बैठो। मैं चमकीले को बुलाकर लाता हूँ।“

दफ्तर आकर टिक्की दुग्गरी जाने की अभी तैयारी ही कर रहा था कि तभी चमकीला साइकिल पर वहाँ पहुँच गया था। टिक्की ने अमरजोत और उसके भाई के आने के बारे में बताया तो चमकीला अमरजोत से मिलने के लिए उतावला हो उठा। जल्दी में उसने साइकिल को स्टैंड पर भी नहीं लगाया था। बल्कि वैसे ही ज़मीन पर फेंककर लिटा दिया था।

टिक्की ने अमरजोत और उसके भाई का चमकीले से परिचय करवाया था, “लो जी, आ गया चमकीला।“

अमरजोत ने चमकीले को देखकर व्यंग्य में हँसते हुए कहा था, “ये है चमकीला?“

दरअसल, अमरजोत हालांकि चमकीले से दो साल छोटी थी, पर अमरजोत उससे पहले प्रौढ़ आयु के गायकों प्यारा सिंह पंछी, धन्ना सिंह रंगीला, सीतल सिंह सीतल, करनैल गिल्ल, कुलदीप माणक जैसों के साथ गा चुकी थी और चमकीले का नाम सुनकर उसने कल्पना कर रखी थी कि कोई अधेड़ उम्र का गवैया होगा। लेकिन उन्नीस-बीस साल के नौजवान गायक को देखकर उसको अचम्भा हुआ था। वह हँस पड़ी और नाक चिढ़ाकर बोली थी, “ये मेरे साथ गा लेगा?“

अमरजोत के मुँह से यह बात सुनकर चमकीला कच्चा-सा होकर बेइज्ज़ती महसूस कर गया था। चमकीले को शरम से पानी पानी हुआ देख टिक्की ने बात को संभाला था, “आप इसकी उम्र न देखो। एकबार इसका गीत सुनो। चल सुना चमकीले।“

चमकीले ने चारपाई के नीचे से बाजा निकाला और बोला, “टिक्की भाई, कौन सा गीत सुनाऊँ?“

“जो चाहे सुना दे। तेरे सारे गीत ही बढ़िया हैं।“ टिक्की ने चमकीले के नंबर बनाने चाहे थे।

चमकीले हरमोनियम पर उंगलियाँ नचा कर गीत छेड़ लिया था, “जदों तैनूं मतलब सी, करदा सी भाबी-भाबी।“

गीत गाते हुए चमकीले की हरमोनियम पर कलाबाज़िया लगाती उंगलियाँ देखकर अमरजोत दंग रह गई थी। गीतों के बोल उसके अंदर गहरे तक उतर गए थे और मनभावन आवाज़ का नशा उसके दिमाग में चढ़ गया था। चमकीले का जादू अमरजोत के सिर चढ़कर बोल पड़ा था।

चमकीला एक के बाद एक गीत सुनाता गया था और अमरजोत मंत्रमुग्ध-सी बैठी सुनती रही थी। सुबह बैठे कब शाम हो गई थी, उन्हें गुज़रते वक्त का ज़रा भी अहसास नहीं हुआ था। अमरजोत चमकीले की गायकी की ओर बुरी तरह खिंची चली गई थी।

शाम को अमरजोत और पप्पू उठने लगे तो टिक्की ने उनसे पूछा था, “अब तो अँधेरा हो चला है। आपके रहने का कहीं प्रबंध करें?“

पप्पू ने मना कर दिया था, “नहीं, यहाँ अब्दुलपुर बस्ती, जमालपुर में मेरे बड़े भाई बलदेव की ससुराल है। हम वही जाएँगे और हमारा भाई वहीं है, उसे मिल लेंगे।“

“ठीक है, फिर कल को रिहर्सल के लिए दस बजे आप मेरे दफ्तर पहुँच जाना।“ जब वे जाने लगे तो चमकीला ने ताकीद कर दी थी।

“अच्छा, पहुँच जाएँगे।“ कहकर वे दोनों रिक्शा लेकर बस अड्डे की ओर चले गए थे।

उनके चले जाने के बाद टिक्की ने चमकीले से पूछा, “दस बजे का टाइम तो दे दिया, पर रिहर्सल कहाँ करेंगे?“

“भारत नगर चैक के पास बायीं ओर वाली गली में एक चैबारा है। वहीं रिहर्सल किया करेंगे।“ चमकीले ने पहले ही सब प्रबंध कर रखा था।

अगले दिन रियाज शुरू हो गया था। चमकीले ने अमरजोत के साथ आठ गीत तैयार किए। उससे चैथे दिन मक्खू मंडी में कार्यक्रम था। तीन दिन खूब रिहर्सल चलती रही थी। 

चैथे दिन यानी कार्यक्रम वाले दिन जब रात को दस बजे मक्खू मंडी पहुँचे तो प्रबंधकों ने सूचित किया कि प्रोग्राम कैंसिल हो गया है। चमकीले ने बकाया रहते पैसे लेने के लिए ढक्कन को भेजा था। प्रबंधकों ने पैसे देने से कोरा जवाब दे दिया, “जब प्रोग्राम ही कैंसिल हो गया, फिर पैसे किस बात के?“

ढक्कन ने अपनी जेब में से एग्रीमेंट फार्म निकालकर दिखाया था, “ये देखो, इसमें साफ लिखा है कि प्रोग्राम हो या न हो, कलाकार पेमेंट लेने का हक़दार है।“

प्रबंधकों ने जब कोई बात नहीं मानी तो ढक्कन ने धमकी दी थी, “ठीक है फिर हम थाने जाते हैं अभी। रात वहीं बिताएँगे और सुबह तुम्हें बुलाकर बात करेंगे।“

हंगामा बढ़ता देख कर एक-दो सयाने लोग बीच में पड़े और उन्होंने ढक्कन को दो हज़ार रुपये का खर्चा दिलवा दिया। वापस लौटते हुए रास्ते में रोटी-पानी छकने के लिए रुके तो चमकीले को उदास देख अमरजोत बोली थी, “शायद मैं तुम्हारे लिए अपशगुन हूँ जो पहला ही प्रोग्राम कैंसिल हो गया।“

चमकीला, अमरजोत के चेहरे को ग़ौर से देखते हुए बोला था, “नहीं बीबी। यह सब कुछ तो इस पेशे का और ज़िन्दगी का हिस्सा है। फिर क्या हुआ अगर प्रोग्राम कैंसिल हो गया? हमें इतने प्रोग्राम मिलेंगे कि हम कर नहीं सकेंगे। हम खुद मना किया करेंगे।“

चमकीले का यह उŸार सुनकर अमरजोत के चेहरे पर रौनक आ गई थी।

अगला कार्यक्रम पंद्रह-बीस दिन बाद था। अमरजोत को इस बात का इल्म था। वह चमकीले से बोली, “मैं फरीदकोट चली जाऊँ? यहाँ खाली बैठी क्या करूँगी?“

चमकीले के पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक गई थी। उसे डर था कि यदि अमरजोत एकबार चली गई तो उसे वापस लाना बहुत कठिन होगा। ख़ास कर पहला ही प्रोग्राम कैंसिल हो जाने के कारण यह भी हो सकता था कि फरीदकोट जाकर वह किसी दूसरे के साथ जोड़ी बना ले। चमकीला किसी कीमत पर उसको जाने नहीं देना चाहता था। परंतु वहाँ रखने की भी उसके पास कोई ठोस वजह नहीं थी। ऐन मौके पर चमकीले ने अपना पैंतरा बदला था, “नहीं-नहीं... हम रिकार्डिंग वाले गीतों की रिहर्सल करते हैं। तुम जाकर क्या करोगी?“

अमरजोत को यह ज्ञान नहीं था कि चमकीला उसको रोकने के लिए बहाना बना रहा था। अमरजोत ने चमकीले को रुकने की रजामंदी प्रकट करते हुए कहा था, “अच्छा तो हम भाई-बहन को रहने के लिए एक कमरा किराये पर ले दो।“

चमकीले ने तुरंत टिक्की को कमरा तलाशने के लिए भेज दिया। टिक्की पूछताछ करता अशोकी स्कूटर वाले के पास चला गया था। संयोग से वहाँ कलाकार बलदेव सिंह सबर बैठा था और उसके पास लाजपत नगर में एक कमरा खाली था। टिक्की को उसने वह कमरा दिखा दिया।

टिक्की वापस आकर अमरजोत, पप्पू और चमकीले को कमरा दिखाने ले गया था। कमरा दिखाकर चमकीले ने अमरजोत से पूछा था, “आपको कमरा पसंद है?“

अमरजोत ने कमरे में चारों ओर नज़र घुमाई थी, “कमरा तो पसंद है, पर आप इनसे किराये की बात खोल लो।“

“हाँ जी, सबर साहब। बोलो।“ चमकीले ने मकान मालिक से पूछा था।

“साढ़े पाँच सौ रुपया महीना लूँगा जी।“

सबर की बात सुनकर अमरजोत ने कहा, “हम तो पाँच सौ देंगे।“

“ठीक है जी, आप पाँच सौ दे देना।“ सबर सहजता से मान गया था।

चमकीले ने झट पाँच सौ रुपये निकालकर मकान मालिक को पकड़ा दिए थे। 

टिक्की को ढोलकी-बाजे कमरे में लाने के लिए कहकर चमकीले ने दरी बिछवाई और उस पर बैठकर अमरजोत से संबोधित हुआ था, “लाओ जी, आपको गीत लिखकर दूँ।“

टिक्की के आने पर रिहर्सल शुरू हो गई थी। इस तरह करीब दो ढाई हफ्ते रिकार्डिंग वाले गीतों की रिहर्सल चलती रही। एक दिन दफ्तर का क्लर्क कुलविंदर सिंह कुक्की दिल्ली से कंपनी वालों का पत्र लेकर रिहर्सल के समय आ गया। उस पत्र में चमकीले को अगली रिकार्डिंग के लिए तारीख़ दी हुइ थी। पत्र पढ़कर चमकीले ने पत्र अमरजोत के सामने रख दिया, “लो जी, आपके सिर पार्टी हो गई।“

पत्र पढ़कर अमरजोत खुशी में नाच उठी, बोली, “बोलो क्या खाओगे?“

चमकीला मीट खाने और शराब पीने का शौकीन था। उसने जेब में से पैसे निकालकर पप्पू को दिए थे, “ले पप्पू, बोतल और एक किलो मीट ले आ।“

टिक्की को चमकीले ने अपने कमरे से स्टोव, पतीला, नमक, मिर्च, हल्दी, मीट मसाला, लहसुन, अदरक और प्याज लेने भेज दिया। टिक्की के आने पर अमरजोत प्याज छीलने लग गई थी। तभी पप्पू बोतल और मीट लेकर आ गया था। अमरजोत मीट बनाने में व्यस्त हो गई थी। तीनों जने दारू पीने लगे थे। काफ़ी देर बाद खा-पीकर खुशी खुशी चमकीला और टिक्की वहाँ से चले गए थे। टिक्की अपने कमरे की ओर चला गया और चमकीला अपने गाँव दुग्गरी की ओर।

अगले दिन चमकीला और अमरजोत ने दो घंटे रिहर्सल की थी क्योंकि उससे एक दिन बाद नकोदर के पास बिल्ली वडैच में प्रोग्राम करने जाना था।

बिल्ली वडै़च प्रोग्राम पर लोगों की बहुत भारी भीड़ एकत्र हुई थी। चमकीला, अमरजोत को लेकर स्टेज पर गया तो अगली कतार में बैठा एक आदमी ऊँची आवाज़ में बोला था, “बल्ले आए चमकीले, पुर्जा बहुत बढ़िया निकालकर लाया है।“

पहली बार अमर सिंह चमकीला और अमरजोत स्टेज पर जलवागर हुए तो देखने-सुनने वाले वाह-वाह कर उठे थे। अमरजोत को इस पहले कार्यक्रम से ही अहसास हो गया था कि लोगों ने उनकी जोड़ी को कुबूल कर लिया था। इसके पश्चात चमकीले और अमरजोत पर तो कार्यक्रमों की बारिश ही होने लग पड़ी थी।

Sunday, May 27, 2018

15-लव मैरिज

ज़िला जालंधर के गाँव उघ्घी चिट्टी में प्रोग्राम करने के बाद चमकीला अमरजोत को लेकर दिल्ली रिकार्डिंग के लिए चला गया था। तैयारी उन्होंने पहले ही पूरी की हुई थी। दिल्ली जब स्टुडियो में पहुँचे तो अमरजोत को देखकर ज़हीर अहमद ने पहचान लिया था, “ये लड़की तो कुलदीप माणक के साथ हमारे पास पहले भी रिकार्डिंग करवाकर गई थी।“

“हाँ जी।“ अमरजोत ने उŸार दिया था।

रिकार्डिस्ट ज़हीर अहमद, चमकीले को एक तरफ ले जाकर पूछने लगा, “ये आप का नया सैट कितने दिन तक रहेगा? पहले बताइये, फिर हम रिकार्डिंग के बारे में सोचेंगे।“

“बस जी, करीब पंद्रह दिन तक ये सैट ईंट जैसा पक्का हो जाएगा। फिर हथौड़ी से तोड़े भी नहीं टूटेगा किसी से।“ चमकीले ने रिकार्डिंग करवाने के लालच में शेखी मार दी थी।

“अच्छी बात है, आप होटल में जाकर आराम करो। आप की रिकार्डिंग कल करेंगे।“ ज़हीर अहमद ने चमकीले को उस दिन मीठी गोली देकर लौटा दिया था।

होटल में आकर चमकीला काफ़ी देर तक अमरजोत के साथ बातें करता रहा था। खुद थकी हुई होने के कारण अमरजोत ने चमकीले से ऊबकर कहा, “अमर, अब तुम जाकर आराम कर लो। कल हमारी रिकार्डिंग है।“

पहली बार अमरजोत के मुँह से अपना नाम सुनकर चमकीले के कानों में शहनाइयाँ बजने लग पड़ी थीं। रातभर वह अमरजोत के साथ प्रेम-पींगें लेता सपने देखता रहा था।

अगले दिन रिकार्डिंग के समय पूरे आठ गीत रिकार्ड हुए थे। जो ‘मेरा विआह करवाउण नूं जी करदै’ और ‘मितरा मैं खंड बण गई’ शीर्षक से अलग अलग ई.पी. बनकर निकलने थे। ‘मेरा विआह करवाउण नूं जी करदै’ का संगीत चरनजीत आहूजा ने दिया था और ‘मितरा, मैं खंड बण गई’ का एस.एन. गुलाई द्वारा संगीतबद्ध हुआ था।

जब ये गीत बाज़ार में आए तो चमकीले के पहले गीतों को भी मात दे गए थे। हर तरफ ‘चमकीला-चमकीला’ होने लगा था। चमकीले को धड़ाधड़ प्रोग्राम मिलने लगे थे। इस वक्त कलाकारों ने चमकीले के साथ खार खानी शुरू कर दी थी। कुछ कलाकार उसकी अमरजोत के साथ जोड़ी को तुड़वाने की योजनाएँ बनाने लग पड़े थे।

एक दिन अमरजोत के पिता ने अमरजोत को करतार रमले के साथ सैट बनाने की पेशकश की थी, “बेटी, रमला बहुत समय से गाता आ रहा है और स्थापित नाम है। और फिर, लड़का है भी अपने फरीदकोट का।“

यह सुनकर पहले तो अमरजोत चुप रही थी, परंतु फिर उसने अपने पिता को टालने के लिए कह दिया था, “कोई बात नहीं डैडी जी, मैं सोचूँगी।“

असल बात तो यह थी कि अमरजोत चमकीले को प्यार करने लगी थी और उसका साथ नहीं छोड़ना चाहती थी। और भी बहुत सारे कलाकारों द्वारा अमरजोत के साथ जोड़ी बनाने के प्रस्ताव आने लग पड़े थे। अमरजोत का चमकीले की ओर अनावश्यक झुकाव अमरजोत के परिवार से छिपा नहीं था। लेकिन अमरजोत के परिवार को अमरजोत की गायकी पर होने वाली कमाई का भी लालच था। इसलिए वे नहीं चाहते थे कि अमरजोत किसी के साथ जल्द विवाह करवाकर सैटिल हो जाए।

चमकीले के साथ गाते हुए बहुत सारे कार्यक्रम अमरजोत के हुस्न और नखरे के कारण भी बुक हुआ करते थे। पर चर्चा में सिर्फ़ चमकीला-चमकीला ही होता था। इस बात को लेकर भी अमरजोत का परिवार खफ़ा था। चमकीले से अमरजोत की जोड़ी तुड़वाकर किसी दूसरे के साथ जोड़ी बनवाने के पीछे उनका उद्देश्य अमरजोत का एक अलग नाम पैदा करना भी था।

अमरजोत पर उसके परिवार की ओर से चमकीले से अलग होने के लिए दबाव दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा था। उधर जितना कोई अमरजोत को चमकीले से दूर करने की कोशिश करता था, उतना ही वह चमकीले के करीब होती जाती थी। चमकीले की ओर वह दिनोंदिन खिंची जा रही थी।

एक दिन अमरजोत और उसके भाई पप्पू की रमले गायक के साथ जोड़ी बनवाने को लेकर बहुत बहस हुई थी। अमरजोत ने यह बात चमकीले के कान में डाल दी थी, “देखो अमर, अगर तुम मेरे साथ पक्के तौर पर जोड़ी बनाकर रखना चाहता है तो मेरे साथ विवाह करवा लो। नहीं तो मेरे घरवाले मेरा किसी दूसरे के साथ विवाह कर देंगे या अपना सैट तुड़वाकर किसी दूसरेे के साथ मेरी जोड़ी बनवा देंगे।“

“पर मैं तो विवाहित हूँ। यह बात तुम भी जानती हो।“ चमकीला अपनी दाढ़ी में खाज करने लगा था।

“मुझे कुछ नहीं मालूम। और न ही मैं कुछ जानना चाहती हूँ। मैं तो सिर्फ़ यही जानती हूँ कि अगर तुमने मेरे साथ जल्दी विवाह नहीं करवाया तो फिर गाते रहना ‘रोंदी कुरलांदी नूं कोई लै चलिया मुकलावे...’।

“अच्छा, मामला यहाँ तक पहुँचा हुआ है? ठीक है, मैं सोचकर बताता हूँ। ‘होर कोई तैनूं जे विआह के लै गिया, चमकीले दा जिउणा जग ते ना रहि गिया। चल मेरे नाल चार लै लइये लावां, जिŸाी पिआर दी रहे बाजी। नी चिŸा करदे, चिŸा करदे मुंडे दा राजी...’ ये तुकें गाते हुए मसखरी करके चमकीले ने पीछा छुड़ा लिया था।

अजीब-सी दुविधा और धार्मिक संकट में डाल दिया था अमरजोत ने चमकीले को। दिन रात मानसिक परेशानियों के साथ जूझता हुआ वह इसी द्वंद में उलझा रहा था। वह इस बारे में न किसी से बात कर सकता था और न ही इस समस्या का खुद कोई हल निकाल सकता था। चमकीले का खाना-पीना दूभर हो गया था और ऐसी स्थिति में कोई नया गीत लिखना तो संभव ही नहीं था। चमकीला न तो परिवार को छोड़ सकता था, न ही खुल्लम खुल्ला अमरजोत को अपना सकता था। फिर, अमरजोत और उसके रुतबे में भी तो अंतर था। अमरजोत कुआंरी थी और वह विवाहित था। उसने जी-जान लगाकर अमरजोत पर मेहनत की थी और उसे रियाज़ करवाया था। अब यदि अमरजोत किसी दूसरे के साथ गाने लग गई तो उसकी सारी मेहनत पर ही पानी फिर जाने वाला था। अब तक के जीवन में चमकीले ने खुद भी महज़ संघर्ष ही किया था। सफलता के ताजे़ खुले द्वार उसको बंद होते नज़र आ रहे थे। चमकीला तो अमरजोत, परिवार और गायकी की तिकोनी चक्की में बुरी तरह पिस रहा था। इस कशमकश और कार्यक्रमों की भरमार के कारण महीना आँख झपकते ही बीत गया था।

फिर वो दिन भी आ गया जब चमकीले को इधर या उधर में से एक तरफ होना ही था। इस बीते समय के दौरान चमकीला, अमरजोत पर बुरी तरह फिदा हो चुका था। चमकीले ने अपना दृढ़ मन बनाकर एक दिन रियाज़ करते समय अमरजोत के साथ खुद ही बात की। 

“सुनो, मैं तुम्हारे साथ विवाह करवाने के लिए राज़ी हूँ। पर तुझे पता है यह काम इतना आसान नहीं। बहुत मुश्किलें आएँगी हमें, सोच ले।“

अमरजोत ने चमकीले की आँखों में आँखें डाल दी थीं, “अपना दायाँ हाथ आगे कर, अमर।“

चमकीले ने अपनी दायीं हथेली फैलाकर अमरजोत के आगे कर दी थी। अमरजोत ने अपना दायाँ हाथ उसक पर उलटा करके रख दिया था, “मैं तो कभी से सोचे बैठी हूँ। अब तो जिऊँगी भी तुम्हारे साथ और मरूँगी भी तुम्हारे साथ। मैं तो चाहती हूँ, तू मुझ अकेली को कहीं दूर ऐसी जगह ले जाए, जहाँ तेरे और मेरे सिवा कोई और न हो।“

अमरजोत की आँखों में ठाठें मारता प्रेम का सागर देखकर चमकीले ने हरमोनियम की दूसरी तरफ पालथी मारकर बैठी अमरजोत को घुटनों के बल होकर बाजे के ऊपर से बांहों में भर लिया था, “मैं तो सोचे बैठा था कि इरादा बदल गया, इसलिए राखी बांधने के लिए बांह आगे करवाई है।“

“अब जो करना है, जल्दी करो। देखो, कही नाव में पत्थर न पड़ जाएँ। इधर घर में तो कब का खतरे का भौंपू बज चुका है मिŸारा।“

“हाँ, तेरे भाई पप्पू की बातों से तो मुझे दाल में कुछ काला लगता था।“

“देखना, यह न हो, कहीं दाल ही काली हो जाए।“

“ले, मैंने तो कभी मीट काला नहीं होने दिया। दाल काली कैसे होने दूँगा? तू चिंता न कर। यार होंगे, मिलेंगे खुद, चिŸा को ठिकाने रखें। मैं आज ही प्रबंध करता हूँ।“ कहकर चमकीला अपने दफ्तर में आ गया था।

संदेशा भेजकर चमकीले ने टिक्की को दफ्तर में बुला लिया था। जब टिक्की आया तो दफ्तर में कुछ लोग बैठे थे। चमकीला टिक्की को एक तरफ ले गया था, “मैंने अमरजोत के साथ विवाह करवाने का फैसला कर लिया है। तू मेरा विवाह करवा दे।“

“करूँ फिर उसके घरवालों के साथ बात?“

“अमरजोत कहती है कि ‘मेरा विआह कराउण नूं जी करदै, बेबे न मानती मेरी’। मूर्ख, मैं तुझे विवाह करवाने के लिए कह रहा हूँ। हमारा रिश्ता तुड़वाने को नहीं। अमरजोत के घरवालों को ज़रा सी भी भनक लग गई तो वे अमरजोत को उसी समय फरीदकोट ले जाएँगे। पप्पू फरीदकोट गया हुआ है। दो-तीन दिन तो लौटने से रहा। हमें यह काम अभी फुर्ती से करना पड़ेगा। उसकी गै़रहाज़िरी में।“ चमकीले ने टिक्की के कान में अपनी तीव्र इच्छा फूंकी थी।

“वो तो ठीक है, पर तेरे घरवाले मान जाएँगे? तू तो ब्याहा हुआ है।“ टिक्की ने अपना शक प्रकट किया था।

“वह मेरी जिम्मेदारी। मैं खुद अपने घरवालों से निबट लूँगा। तुझे किस बात की चिंता? और फिर मेरा विवाह नहीं हुआ था। मेरे बड़े भाई की मौत हो गई थी और उसकी पत्नी मेरे सिर पर बिरादरी ने रख दी थी। मुझे मजबूरी में चादर डालनी पड़ी थी। हमारी आपस में नहीं बनती। तुझे तो मालूम ही है कि मैं कितने कितने दिन घर नहीं जाता। फिर वो विवाह कैसा? अमरजोत के घरवालों को भी ज़रूरत पड़ी तो हम यही बताएँगे। तू बस मेरे और अमरजोत के विवाह का इंतज़ाम कर दे।“

“चल बता, मैं क्या कर सकता हूँ?“

“देख, यहाँ लुधियाना में विवाह का पंगा लिया तो उन्नीस-इक्कीस होने की संभावना ज्यादा है। तू चोरी-छिपे अपने फगवाड़े वाले घर में हमारा ‘आनंद कारज’ पढ़वा दे। वहाँ किसी को भी भनक नहीं लगेगी। किराया मुझसे ले जा और सारा प्रबंध आज ही कर ले। हमने सुबह नीम को बताशे लगा देने हैं।“ चमकीले ने पैसे निकालकर टिक्की को पकड़ा दिए थे। शाम का समय था। टिक्की वहाँ से सीधा बस-अड्डे चला गया और फगवाड़े वाली बस में चढ़ गया।

फगवाड़े बस अड्डे उतरकर टिक्की ने रिक्शा लिया और सब्ज़ीमंडी उतरकर स्पीकरों वाले अवतार फौजी को सारी कहानी जा बताई और सहयोग की मांग की। टिक्की अपने परिवार वालों के साथ इस मामले में बात करने से झिझकता था। अवतार फौजी ने टिक्की को पहले अधिया पिलाकर तैयार किया था। फिर रात के नौ बजे के करीब मोटर साइकिल पर बिठाकर उसके घर सुखचैन नगर टिक्की के संग पहुँच गया था। टिक्की के माता-पिता के साथ फौजी ने ही बात की थी। पहले तो सुनकर वे डर ही गए थे, “देखना, कहीं बखेड़ा ही न खड़ा कर देना।“

“कुछ नहीं होता। बस सारी दस-पंद्रह मिनट की बात है। लावां(फेरे) करवाकर काम निपटा देंगे।“ फौजी के समझाने पर टिक्की के परिवार ने रज़ामंदी दे दी थी।

अवतार फौजी अपने मोटर साइकिल पर टिक्की को स्टेशन छोड़ने चल दिया था। रास्ते में टिक्की ने अपनी बुआ के लड़के जोगिंदर सिंह, बिजली फोटोग्राफर को अगले दिन नौ बजे का समय दे दिया था - तस्वीरें खींचने के लिए।

फौजी टिक्की को रात में अपने मोटर साइकिल पर रेलवे स्टेशन छोड़ आया था। रात के बारह बजे रेल पकड़कर टिक्की लुधियाने आ गया था। उसने चमकीले को सारी बात बताई थी। चमकीले को चैन नहीं आ रहा था। वह चारपाई पर बैठा अगले दिन की योजना बनाता रहा, “अच्छा टिक्की, फिर हम अमरजोत को ले जाने के लिए गाड़ी किसकी करेंगे?... उसके लिए विवाह वाले सूट भी लेने पड़ेंगे। सेहरा वैगरह भी लेना पड़ेगा।“

“लोकल बस अड्डे से प्रेम की टैक्सी कर लेंगे। अपना यार है वो। बाकी सामान फगवाड़े पहुँचकर ले लेंगे। अब तू सो जा और मुझे भी सोने दे।“ टिक्की दारू के नशे के कारण सुस्ताया पड़ा था।

चमकीले के लिए सुबह मुश्किल से हुई थी। अमरजोत को संदेश भेजकर सारी जुगत चमकीले ने पहली ही समझा रखी थी। 24 मई 1983 को कार लेकर वह अमरजोत को लेने गए तो मकान मालिक दरवाज़े पर खड़ा था। उसने अमरजोत से सहज ही पूछ लिया था, “कहीं कोई खास ही प्रोग्राम लगता है आज?“

“हाँ जी, खास ही है।“ अमरजोत ने वहाँ से खिसकने में फुर्ती दिखाई थी।

मकान मालिक ने यही समझा था कि अमरजोत कोई कार्यक्रम के लिए गई थी। साढ़े नौ बजे फगवाड़े के बांसों वाले बाज़ार में पहुँचकर अमरजोत के लिए चमकीले ने दो रेडीमेड सूट, सिंधूर और अन्य सामान खरीदा था। बाकी आवश्यक बंदोबस्त टिक्की के घरवालों ने कर रखे थे।

नज़दीक के गुरद्वारे से महाराज की बीड़ और सुक्खा सिंह ग्रंथी को फौजी और टिक्की का पिता ले आए थे। राह में आते समय ही फौजी ने ग्रंथी को समझा दिया था कि पंद्रह बीस मिनट से अधिक समय न लगाए। ग्रंथी ने घर आते ही अपनी कार्रवाई आरंभ कर दी थी। करीब पंद्रह मिनट में सारी रस्म समाप्त हो गई थी। अमरजोत के पिता वाले फर्ज़ टिक्की के पिता रतन सिंह ने निभा दिए थे। ‘आनंद कारज’ के बाद फौजी ने कहा था कि अब विवाह वाली जोड़ी से एक एक धार्मिक गीत सुना जाए। जगिंदर सिंह बिजली ने फोटोग्राफी की थी और उसने उसी तरह गले में डालकर ढोलकी बजाई थी और अमरजोत ने गीत गाया था, “पता नहीं की बाटे विच घोल के पिला गया।“

इसके बाद चमकीले ने गीत पेश किया था, “दशमेश पिता सिक्खी दा महिल बणा चलिया।“ श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी की बीड़ गुरद्वारे छोड़कर लंगर बरताया गया था। अमरजोत की मांग में चमकीले ने बालों में लगाने वाली सुई से सिंधूर डाला था और जल्दबाजी में आनंद कारज भी पगड़ी बांधने की बजाय सिर पर रूमाल ले कर करवाए थे।

दो दिन तक अमरजोत और चमकीला वहीं रहे थे। तीसरे दिन चमकीले ने अमरजोत से एक चिट्ठी लिखवाई जिसमें लिखा था कि मैंने चमकीले के साथ विवाह करवा लिया है और हम वैष्णो देवी में हैं।

यह चिट्ठी तीसरे दिन ही चमकीले ने अपने चेले बलजिंदर संगीले के हाथ भेजकर उससे कहा था कि अमरजोत के किराये वाले कमरे के दरवाजे़ के बाहर गांेद लगाकर चिपका दे।

जब अमरजोत के भाई ने आकर वह चिट्ठी पढ़ी थी तो अपने पिता से कहा था, “जिस बात का डर था, वही हो गई। अब उन्हें वैष्णो देवी में कहाँ खोजेंगे?“

अमरजोत के परिवार वाले भड़के तो अवश्य, पर शांत रहे। 29 मई को चमकीले का खन्ने के पास कालेवाल गाँव में प्रोग्राम बुक था। जब चमकीला और अमरजोत दफ्तर पहुँचे तो अमरजोत ने लाल चूड़ा पहन रखा था जिसे देखकर पप्पू लाल-पीला हो गया था, “बब्बी, तूने यह अच्छा नहीं किया।“

अमरजोत ने अपने भाई को डांटते हुए कहा, “तू चूप होकर बैठ जा, पप्पू। जो मुझे ठीक लगा, मैंने कर लिया।“

पप्पू चमकीले के साथ लड़ने-झगड़ने लगा था। चमकीले ने एक वाक्य में बात खत्म कर दी थी, “जब मियां-बीवी राज़ी, तो क्या करेगा काज़ी।“

शाम तक लुधियाना के सारे कलाकारों में अमरजोत और चमकीले के विवाह की ख़बर जंगल की आग की तरह फैल गई थी। चमकीले की पहली पत्नी को जब इस बारे में पता चला तो उसके भाई लाठियाँ लेकर चमकीले को पीटने दफ्तर में आ पहुँचे। दफ्तर के क्लर्क ने विवाह की ख़बर का खंडन करके उन्हें टाल दिया और चमकीले को सूचित कर दिया था।

चमकीला अमरजोत को लेकर फगवाड़े टिक्की के घर चला गया था। कुछ दिन उन्होंने कार्यक्रम भी नहीं किए थे। फिर चमकीला अमरजोत को लेकर किराये के कमरे बदलता रहा ओर अपने ससुराल वालों को उसने काफ़ी दिनों तक इसी भ्रम में रखा था कि अमरजोत के साथ वह सिर्फ़ गाता था। उनका विवाह नहीं हुआ था। फिर एक दिन जब सारा भेद खुल गया तो चमकीले की पहली पत्नी गुरमेल कौर अपने भाई शिंदर (सुखविंदर सिंह) और उसके दोस्तों को लेकर चमकीले के दफ्तर आ धमकी थी। हाथों में नंगी किरपाणें लिए खड़े वे साजिन्दों और क्लर्क के साथ लड़ पड़े थे, “दुक्कियों-तिक्कियो(कुक्की और टिक्की), चमकीले को निकालो बाहर... कहाँ है वो? आज हम उसे काट देंगे।“

“चमकीला राजस्थान में प्रोग्राम करने गया हुआ है। जब वापस आया तो आपके पास भेज देंगे।“ साजिन्दों ने एक बार उन्हें टालकर वापस भेज दिया था।

चमकीला डर के मारे दफ्तर नहीं आता था और अमरजोत के साथ कमरे बदल-बदलकर रहे जाता था। कभी वे दोनों हैथोवाल में कमरा किराये पर लेकर रहते, कभी घुमियार मंडी और कभी भारत नगर चैक के पास। जब करीब महीना भर यूँ ही गुज़र गया तो चमकीले के साले और उसकी पत्नी फिर गंडासे-किरपाणें लेकर चमकीले को खोजने आ गए और उनकी साजिन्दों के साथ झड़प हो गई थी। मामला पुलिस थाने तक पहुँच गया था। चमकीले ने पुलिस को पैसे खिलाकर राज़ीनामा करवा लिया था। पहली पत्नी की शर्तों के अनुसार चमकीला ने हर महीने उसे खर्चा देना मंजूर कर अपना पीछा छुड़वाया था।

उधर अमरजोत के परिवार को भी पैसों का लालच था। उन्होंने भी सोचा कि अब जब सब कुछ हो गया है तो बिगाड़कर रखने में कोई लाभ नहीं था। उन्होंने भी चमकीले और अमरजोत के साथ मिलकर रहना मंजूर कर लिया था। फिर, आहिस्ता-आहिस्ता कुछ अंतराल के बाद चमकीले के अमरजोत के साथ हुए विवाह को उसकी पहली पत्नी के परिवार ने भी स्वीकार कर लिया था। चमकीले ने अपनी पहली पत्नी को दलील दी थी कि मैंने किसी न किसी लड़की के साथ तो गाना ही है। अमरजोत के साथ न गाऊँगा तो किसी दूसरी के साथ गाने लगूँगा। चमकीले की घरवाली समझ गई थी कि चमकीला टलने वाला नहीं था। उसको खर्चे से मतलब था, जो चमकीला ज़रूरत से भी ज्यादा दिए जा रहा था।

अमरजोत के भाई बलदेव सिंह ने अपने मकान के पास जमालपुर में चमकीले को मकान ले दिया था। चमकीले ने पचपन हज़ार प्रति किल्ले के हिसाब से साढ़े पाँच किल्ले सŸाोवाल में ज़मीन खरीद कर एक मकान बनवाया था जहाँ उसके भाई लश्कर, तारी, पिता और पहली पत्नी ने रहना शुरू कर दिया था। आहिस्ता-आहिस्ता अमरजोत और गुरमेल कौर ने एक दूसरे को कुबूल कर यिा था। बेशक रिश्ता तो उनके बीच सौतन वाला ही था लेकिन वह एक-दूजी के साथ लड़ाई-झगड़ा नहीं करती थीं। कभी कभार वे इकट्ठी दुग्गरी या सŸाोवाल में रह लेती थीं।

पहली पत्नी से तलाक लिए बिना सरेआम चमकीला अपनी दूसरी पत्नी अमरजोत के साथ रहता था। चमकीले को न हिंदू मैरिज़ एक्ट की परवाह थी और न ही दुनिया की। वह अमरजोत के साथ खुश था और उसका परिवार और ससुराल वाले उसके पैसे से प्रसन्न थे। लोग उसकी गायकी से आनंदित थे।

Saturday, May 26, 2018

16-बख़्तावर

दफ्तर लिए को अभी आठ-नौ महीने ही हुए थे और चमकीले को ज़रा भी अपनी निजी ज़िन्दगी के लिए फुर्सत नहीं मिलती थी। कार्यक्रमों की भागदौड़ में उससे न तो दुग्गरी अपनी परिवार के पास जाया जाता था और न ही अपने दफ्तर का तीन महीने से किराया दिया गया था। दरअसल उसको ये छोटे-मोटे काम याद ही नहीं रहते थे।

गुरबचन सिंह वैद का लड़का तरसेम कलाकारों से किराया लेने एक दिन मार्किट में आ गया। किराया इकट्ठा करता करता वह चमकीले के दफ्तर में पास एक अन्य कलाकार के दफ्तर में बैठा था। वहाँ पंद्रह-बीस और लोग बैठे हुए थे। शराब का दौर चल रहा था। कलाकारों की बातें चली तो चमकीले का जिक्र आ गया, “बाकी तो सब ठंडे ही हैं, पर चमकीला तो अति कर रहा है। रोज़ ही प्रोग्राम पर जाया रहता है।“

इस पर तरसेम को याद आया कि चमकीले ने उसको दफ्तर का पिछले तीन महीने से किराया नहीं दिया था। तरसेम ने गाली देते हुए कहा था, “चमकीले को बुलाकर लाओ।“

एक आदमी चमकीले को खोजने चला गया था। संयोग से चमकीला अभी एक प्रोग्राम करके लौटा ही था। तरसेम का संदेशा मिलते ही वह तरसेम के पास चैबारे में आ गया। 

चमकीले के अंदर घुसते ही तरसेम ने उसको गंदी-गंदी गालियाँ देनी शुरू कर दी और उठकर चमकीले को थप्पड़ दे मारा जिसे हाथ से रोकते हुए चमकीला सफाई पेश करने लगा था, “तरसेम भाई, मैं कौन सा तेरे से भागा हूँ। बस, टाइम ही नहीं मिला। मैं तेरा देनदार हूँ। ये उठा किराया।“

चमकीले ने अपनी सारी जेब खाली कर दी थी। मेज पर पाँच, दस और बीस रुपये के नोट बिखरे पड़े थे।

नोट गिनकर तरसेम ने फिर गाली बकी थी, “ये तो पाँच सौ ही हैं।“

“आज भाई इतने ही हैं। बाकी मैं कल को तुझे तेरे घर आकर दे जाऊँगा।“ चमकीला हाथ जोड़े खड़ा था।

चमकीले की बेचारी सी सूरत देखकर तरसेम के जर्मन वाले दोस्त जगिंदर बाठ ने समझाया था, “चल छोड़ तरसेम, उसने कहा न, वह खुद कल आकर दे जाएगा। चमकीला कलाकार बंदा है। तू क्यों उसकी इतने लोगों के बीच बेइज्ज़ती करता है।“

वहीं बैठे एक-दो और लोग चमकीले के हक़ में बोल उठे थे। चमकीले को वहाँ बिठाकर उन्होंने गीत सुनाने की फरमाइश की थी। चमकीले ने ‘सुच्चा सूरमा’ गीत गाया तो सुनते ही तरसेम को ‘धीआं भैणां लुट्टे वे ते काहदा सूरमा’ पंक्ति सुनकर अपनी गलती का अहसास हो गया था। गीत खत्म होने पर उसने चमकीले को गले से लगाकर उससे माफ़ी मांगी थी, “खाई-पी में पता नहीं चला चमकीले, यूँ ही अबा-तबा बोल बैठा। तू गुस्सा न करना।“

“नहीं, गलती मेरी है। मुझे समय से किराया देना चाहिए था। आप बख़्तावर हो, हम गरीबों ने आपसे कैसा गुस्सा करना है?“ कहकर चमकीला चला गया था।

बख़्तावर चमकीले का प्रिय शब्द था। लेकिन उसने अपने सिर्फ़ दो गीतों में ही इसका प्रयोग किया था। एक था, ‘पट्टियां लफंगियां ने बख़्तावरां दीआं जाईयां’ और दूसरे गीत की लाइन थी, ‘साडे बख़्तावरां ने हक खोह लए खाली रहि गए गरीबां दे।’

Friday, May 25, 2018

17-तूंबी का धनी

कुलदीप पारस के दफ्तर में पारस, जसवंत संदीला और अमर सिंह चमकीला पत्रकार शमसेर संधू के संग बैठे दारू पी रहे थे। पारस ने बात शुरू की थी, “संधू साहब, आप यमले की तंूबी के बहुत आशिक लगते हो?“

“नहीं, यह बात नहीं है। जो बढ़िया तूंबी बजाता है, मैं उसकी तारीफ़ किए बिना नहीं रह सकता। यमले की तूंबी बड़ी प्यारी तूंबी है। मीठी-मीठी... तूंबी तो मुझे चांदीराम की भी बहुत पसंद है। उसकी तंूबी में नजाकत और नखरा है। उसका एक गीत है, ‘हाड़ वी लंघिया, साउण वी लंघिया। लंघ गइयां बरसातां, वे तू ना आइऊँ’... भई जो तूंबी उसने उसमें बजाई है, वैसी तूंबी पूरे पंजाब में किसी को बजानी नहीं आती।“

शमसेर संधू की इतनी बात सुनकर चमकीले ने एक तरफ पड़ी तूंबी उठा ली थी और सुर में करने लग पड़ा था, “भाई फिर तूने मेरी तंूबी नहीं कभी सुनी।“

“चमकीले, तूंबी तो तेरी नहीं सुनी। पर तेरी तूंबी के बारे में सुना ज़रूर है कि शिंदे की स्टेजों पर तूंबी बजाकर तू धन्य-धन्य करवाता है। शिंदे का हाथ तो तूंबी पर ढीला ही है। सभी जानते हैं।“

शमसेर संधू के बोलते ही चमकीले ने चांदीराम के गीत में बजी तूंबी का वही पीस बजाना शुरू कर दिया था। पूरे कमरे में सन्नाटा छा गया था। यदि कोई आवाज़ गूंज रही थी तो वह चमकीले की तूंबी की टंकार थी। बारी बारी, एक के बाद दूसरी, चमकीले ने तीन चार तरजे़ं बजाकर सुनाई थीं। सभी उसकी तूंबी पर यूँ झूम रहे थे मानो बीन पर मस्तानी हुई नागिन नृत्य कर रही हो। तूंबी बजाना बंद करके चमकीले ने संधू से पूछा था, “क्या ख्याल है, भाई फिर मेरी तंूबी के बारे में?“

कुछ सोचकर संधू बोला था, “चमकीले, तूंबी वाले चटाखे निकालते किसी को आज पहली बार देखा है। तेरी तूंबी जादूमयी है। सिर चढ़कर बोलता है तेरी तूंबी का जादू। अब मुझे कहना पड़ेगा, यमले की तूंबी प्यारी, चांदराम की करारी और चमकीले की सरदारी तूंबी है।“

Wednesday, May 23, 2018

18-शगुन

एक बार एक लड़का और उसका पिता अखाड़ा बुक करवाने आए। नौध सिंह तब बुकिंग क्लर्क हुआ करता था। चमकीला भी हल्के कोकाकाला रंग की धूप वाली ऐनक लगाए उस समय दफ्तर में बैठा था। लड़के के पिता ने रेट पूछा तो क्लर्क ने पच्चीस सौ रुपये बताया।

लड़के का पिता मोलभाव करने लगा, “ज्यादा है। यार कुछ कम करो।“

चमकीले ने कह दिया था, “चलो आप तेईस सौ दे दो।“

“नहीं, यह भी ज्यादा हैं। हम तो दो हज़ार दे सकते हैं।“

“ना जी, दो हज़ार में तो हम नहीं कर सकते।“ क्लर्क ने कोरा जवाब दे दिया था।

“चल काका, और गाने वाले क्या कम हैं? चमकीले को क्या सोने के पŸार चढ़े हुए हैं? हम किसी दूसरे को बुक कर लेते हैं।“ लड़के का पिता बोला था।

“नहीं बापू, चमकीला, चमकीला ही है।“ लड़के ने जिरह की थी।

“मैं लफ्फड़ मारूँ, उठकर चल पड़। मेरे पास बर्बाद करने को पैसे नहीं हैं।“ कहकर वह पिता-पुत्र उठकर चल दिए थे।

बाहर आकर लड़के ने अपने पिता से सलाह की कि मैं कोशिश करके देखता हूँ अगर दो हज़ार में मान जाएँ। बापू बाहर खड़ा रहा और लड़का अंदर चला गया। 

“भाई मेरा बापू तुम्हें दो हज़ार दे देगा। तुम प्रोग्राम बुक कर लो। बाकी का तीन सौ मैं तुम्हें अपने शगुन में इकट्ठे हुए पैसों में से दे जाऊँगा। मेरी बहुत पुरानी हसरत थी कि मेरे विवाह पर चमकीला गाए।“

यह सुनकर चमकीले की आँखें भर आई थीं और उसने कह दिया था, “कोई बात नहीं। अपने बापू को बुलाकर प्रोग्राम बुक करवा देे।“

लड़के ने अपने बापू को आवाज़ लगाकर अंदर बुला लिया था, “बापू आ जा, मान गए।“

दो हज़ार में बापू के सामने प्रोग्राम बुक कर लिया गया। साई के पाँच सौ रुपये लेने थे। उनके पास मुश्किल से दो सौ रुपये निकले। चमकीले ने अपने क्लर्क को सौ रुपये एडवांस में दर्ज़ करने के लिए कहकर सौ रुपया उन्हें वापस कर दिया था, “ये लो। आपने घर वापस जाने के लिए बस का किराया भी देना होगा। अब गाँव पहुँचकर एक काम करो कि अपने आसपास के गाँव में ढंग से शोर मचा दो कि फलानी तारीख को चमकीला गाने आएगा। फिर हम जाने, हमारा काम जाने।“

बाप-बेटा खुशी-खुशी लौट गए थे। चमकीला जब उनके यहाँ प्रोग्राम करने गया तो एक बड़े-से स्टेज पर चमकीले ने गाया था। चारों ओर लोगों की असंख्य भीड़ थी। उस दिन चमकीले को इनामों का सौलह सौ हज़ार रुपया बना था। प्रोग्राम के बाद चमकीले ने इक्यावन सौ रुपया विवाह वाले लड़के के बापू को पकड़ाते हुए कहा था, “बापू जी, मेरी तरफ से यह आपके बेटे को शगुन है।“

चमकीले ने अपने प्रोग्राम के पैसे भी नहीं लिए थे और चमकीले से पैसे पकड़ते लड़के के बापू की आँखों में खुशी के आँसू छलक आए थे, “सच में, चमकीला चमकीला ही है।“

Tuesday, May 22, 2018

19-मोरी और साग चोरी

सर्दियांे की गुनगुनी-सी धूप वाले दिनों में नवां शहर के पास कार्यक्रम से लौटते हुए रास्ते में अमरजोत बोली, “साग खाये बड़े दिन हो गए। आज साग मंगवा लो। मैं रात को बनाऊँगी।“

“साधुओं को स्वादों से क्या? जो चाहे बना लेना बब्बी, हम तो वाहेगुरू कहकर छक लेंगे।“ कार की पिछली सीट पर बैठे अमर सिंह चमकीले ने जवाब दिया था।

थकी होने के कारण अमरजोत ने सीट की पीठ से सिर टिकाकर आँखें बंद कर ली थीं। चमकीले के दूसरी तरफ बैठा सŸाा ढोलक वाला गाड़ी चला रहे अमरजोत के भाई पप्पू के साथ बातें करने में व्यस्त था।

कार चक्क दाना गाँव के पास से गुज़रने लगी तो मक्खी घड़ेवाले ने एक तरफ खेतों में सरसों का साग देखते हुए कहा था, “उस्ताज जी, वो रहा साग। अगर दिल करता है तो तोड़ लेते हैं।“

अमरजोत ने आगे बढ़कर पप्पू का कंधा पकड़कर कहा, “पप्पू, रोक गाड़ी।“

पप्पू ने ब्रेक पर पैर रखकर कार सड़क किनारे रोक ली थी। चमकीला, अमरजोत और सŸाा बाहर निकलकर साग तोड़ने चल पड़े थे।

सŸाा ने जाते हुए अपनी शंका प्रकट की थी, “चमकीला साहब, किसी से पूछ लेते हैं हम। यूँ ही साग चोरी करने का इल्ज़ाम न लग जाए अपने पर।“

“साग ही है, हम कौन सा किसी के गहने उतार लेंगे। यहाँ कोई दिखता नहीं, पूछें किससे?“ चमकीला और अमरजोत साग तोड़ने लग पड़े।

सŸाा थोड़ी दूरी पर पानी की मोटर पर पानी पीने के इरादे से चला गया था। वहाँ मोटर के दूसरी तरह खड़े स्वराज ट्रैक्टर पर चमकीले के गानों की कैसेट बज रही थी, “जीजा लक्क मिण लै...।“

सŸाा जैसे ही मोटर के पास पहुँचा, मोटर वाले कोठे में खेत का मालिक बाहर निकल आया था, “कौन है भाई?“

“मैं हूँ जी, सतपाल सŸाा।“

“सŸाा हो चाहे अट्ठा, या नहला-दहला। क्या काम है?“

“पानी पीना था।“

“पी ले।“ कहकर उसने साग तोड़ रहे औरत और मर्द को देखकर सŸो से पूछा था, “वो तेरे साथ आए हैं?“

“हाँ जी, हम यहाँ से गुज़र रहे थे। सोचा, थोड़ा-सा साग ही ले चलते हैं, सरदार जी।“

“क्यों? बाप का खेत समझ रखा है? शरम नहीं आती तुम्हें, साग चोरी करते हुए?“ खेत का मालिक सŸो पर गुस्से में उलटा पड़ गया था।

“ओ मालिको, चिड़िया चोंच भर ले गई, नदी ना घटिओ नीर। चार गंदलें तोड़ने से आपको क्या फर्क़ पड़ेगा जी? साग है बाबो, टूमें तो नहीं? और आपको पता है, ये साग तोड़ने वाले कौन हैं?“

“कौन को क्या, धरमिंदर और हेमा मालनी है?“

“नहीं जी, आपने ये ट्रैक्टर पर जिनकी टेप लगा रखी है, यह वही जोड़ी है -चमकीला और अमरजोत।“

“साले, सवेरे सवेरे दारू पिये फिरता है? आ चल, तेरी और तेरे चमकीले की टांगे तोड़ता हूँ।“ सŸो को बांह से पकड़कर खींचता हुआ वह आदमी साग तोड़ रहे चमकीले की ओर चल पड़ा था। उसने पीठ किए खड़े चमकीले और अमरजोत को ललकारा था, “खड़े रहो, मैं तुड़वाता हूँ तुम्हे साग।“

चमकीले ने जब पीठ घुमाई तो उस आदमी का मुँह खुला का खुला रह गया था, “चमकीला साहब, आप यहाँ कैसे?“

“बस भाई जी, प्रोग्राम करके लौट रहे थे यहाँ से। बब्बी बोली, साग खाना है। हमने सोचा, यहाँ से ताज़ा साग ले चलते हैं। आपको एतराज है तो रहने देते हैं।“

“ओ चमकीला साब, ये कौन सी बात कर दी? मेरा नाम प्रदुम्मण सिंह है। मैं तो आपका खासा तगड़ा मुरीद हूँ जी। आप चाहे गुलाब तोड़ लो। यह तो फिर भी साग है। मेरे तो धन्य भाग हैं जो आपके जैसे कलाकार बंदे चलकर मेरे पास आए। आपको देखने के लिए लोग दूर-दूर से जाते हैं।“ खेत मालिक प्रदुम्मण की आँखों में खुशी के आँसू चमकने लगे थे। उसने खुद साथ लगकर साग तुड़वाया और सबको खींचकर मोटर की ओर ले गया था, “आओ, मैं चाय बनाता हूँ, और आपको कुछ दिखाता हूँ।“

चमकीला, अमरजोत और सŸाा जब मोटर वाले कोठे की ओर गए तो प्रदुम्मण ने कोठे की एक दीवार में से सीमेंट निकाली हुई मोरी पर उंगली रखकर दिखाई थी, “ये देखो चमकीला साहब। आपका गीत था न वो... ‘उहने खुरच खुरच के कंध विचों, निक्की जिही करली मोरी वे... उहदे बिड़क पैरां दी आउंदी सी, जिवें चोर कोई करदा चोरी वे। मैं समझिया खबरे मोरी विच, कोई चिड़ी आल्हणा पाउंदी सी... उह तकदा रिहा वे, मैं शिखर दुपहरे नाउंदी सी...’ बाई जी, आपके गीत से सीखकर हमने भी ये मोरी निकाल ली... यहाँ चारा काटने आई औरतें कई बार नहाने लग जाती हैं। बस फिर बाकी आप समझ लो...।“

चमकीला हँस पड़ा था, “उस गीत के अगले अंतरे में तो यह भी कहा था, ‘बड़ा कुŸो दा वढ़िया... टलदा नीं कारा कर जाउगा...।’

प्रदुम्मण उत्साहित होकर बोला था, “हाँ जी, हाँ जी... ‘छड्डदा चमकीला खहिड़ा नीं जिहड़ा मगर डुम्मणा ला बैठी... हो तेल भांबड़ ते पा बैठी...’ चमकीला साहब, मेरी विनती है कि आप दोनों जने मेहरबानी करके वही गीत सुना दो। फिर मैं मीट बनाकर आपको रोटी खिलाकर ही भेजूँगा।“

चमकीला और अमरजोत हौदी पर बैठ गए थे। सŸाा उसके पास ही नीचे ज़मीन पर बैठ गया था।

“चल बब्बी, सुना देते हैं।“ चमकीले ने अमरजोत को इशारा किया तो उसने अपने सिर पर ली हुई चुन्नी संवार कर गीत के बोल शुरू किए थे, “तेरा वड्डा वीर मेरा जेठ छड़ा, मोरी विचों तकदा रिहा खड़ा...।“

अस्थायी खत्म होने पर जैसे ही चमकीले ने अपने अंतरे के बोल उठाये थे, मस्ती मंे आकर प्रदुम्मण नाचने लग पड़ा था। उसको अजीबो गरीब ढंग से भंगड़ा करते देख अमरजोत की हँसी निकल गई थी। जैसे ही, अमरजोत ने हँसी पर नियंत्रण किया तो अपने एक अन्य गीत के बोल गाने शुरू कर दिए थे, ‘नचदा फिरे नचारा वांगू, पाके घघरी मेरी नी...।“ एक के बाद एक चमकीले और अमरजोत ने चार-पाँच दो-गानों के टप्पे सुना दिए थे। प्रदुम्मण पूरा प्रसन्न हो गया था, “चमकीला साहब, मेरे साथ मेरे घर चलो। आपको रोटी खाये बग़ैर नहीं जाने दूँगा।“

“उधर भी तेरी ही रोटी है वीरे! हम प्रोग्राम करके आए हैं, थके हुए है। घर जाकर आराम करना है। कल दिल्ली के पास गुड़गाँव में अखाड़ा लगाना है। सवेरे जल्दी ही निकलना पड़ेगा। हमें अब इजाज़त दो।“

प्रदुम्मण ने चमकीले को बांहों में भर लिया था, “अच्छा भाजी! मैं मजबूर नहीं करता।“

प्रदुम्मण कार में बिठाकर चमकीले को वहाँ से विदा करने के बाद सड़क पर तब तक खड़ा रहा जब तक उनकी सलेटी रंग की अम्बेसडर कार एच.आर.ई.1786 उसकी आँखों से ओझल नहीं हो गई थी।